Sunday, 17 December 2017
कठिन परिस्थितियों में पनपे विचारों को बतलाती ऐन की डायरी
Saturday, 16 December 2017
वो मेजर जिसने एक पैर न होने के बावजूद भी सेना को कमांड किया
Friday, 15 December 2017
लोकतंत्र में जनता की विचारधारा और कर्तव्य
Thursday, 14 December 2017
आम आदमी के जीवन को दर्शाता सिनेमा
Sunday, 29 October 2017
परिवर्तन की यात्रा
एक समय था, जब कुछ नहीं था। ना जीव, ना पेड़ पौधे और ना ही रोशनी। फिर शुरूआत हुयी जीवन की। पेड़-पौधे आये, जानवर आये, मनुष्य आये। हम मनुष्यों ने जीना सीखा, रहना सीखा, खेती करना सीखा और उन सभी चीजों को सीखते गये; जिसकी हमें जरूरत थी। धीरे-धीरे हममें बदलाव आता गया और हम आगे बढ़ते रहे। बदलाव के इस चरण में हमारी बुद्धि का भी विकास होता रहा और आस-पास के चीजों को समझने की हमारी समझ बढ़ती गयी। हमने प्रकृति को अपने हिसाब से बदलना शुरू किया या फिर ऐसा कह लें, उसका इस्तेमाल करना शुरू किया। फिर हमारी बुद्धि और भी खुली। हमने लोगों का समूह बनाया और फिर शुरू हुआ बँटवारे का खेल।
लोगों द्वारा बनाये गये समूहों ने अलग-अलग इलाकों पर कब्जा करना शुरू किया और 'अधिकार' की उत्पत्ति हुयी। इस 'अधिकार' ने न जाने कितने शब्दों को जन्म दिया - 'युद्ध', 'लालच', 'घृणा' , 'छल' और भी ऐसे बहुत से शब्द। चीजें बदलती रहीं, वक्त बदलता रहा और सबसे बड़ी बात हम मनुष्यों के विचार बदलते रहे। इन बदलते हुए विचारों के परिणाम स्वरूप कुछ ने 'उत्पत्ति' का रहस्य जानना चाहा, वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों ने अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए साधन ढूँढने शुरू कर दिये। इन दोनों ही तरह के लोगों ने अपने-अपने क्षेत्रों में कामयाबी पायी। पहले ने साक्ष्य ढूँढे, समय और परिवर्तन का विश्लेषण किया और फिर कुछ नियम बनाये और नियमों को आने वाली पीढ़ियों को सौंपा। जिन लोगों को ऐसा लगता था कि उन्हें अपने अस्तित्व को बचाये रखना है, उन लोगों ने नींव डाली नए मान्यताओं की, नए धर्मों की। ऐसा नहीं है कि इन लोगों ने नियम नहीं बनाये, नियम तो इन लोगों ने भी बनाये। लेकिन इसका इस्तेमाल बाकी लोगों को डराने के लिए किया गया, अपनी साख को बचाये रखने के लिए किया गया। कहीं ना कहीं इन मान्यताओं और धर्मों की जरूरत भी थी, क्योंकि सबके विचार एक जैसे नहीं थे। ये धर्म उन लोगों के बड़े काम आये, जो जिज्ञासु प्रवृत्ति के नहीं थे। इन सब के बीच भाषा और शैली ने भी अपनी-अपनी भूमिकायें निभायीं।
वक्त ने फिर अपनी रफ्तार पकड़ी और परिवर्तन की आँधी एक बार फिर जोरों से चली। हम अब पूरी तरह से बदल चुके थे। जिस धर्म की शुरूआत, लोगों के अस्तित्व को बचाये रखने के लिए की गयी थी, उसी धर्म ने लोगों के अस्तित्व को खतरे में डालना शुरू कर दिया। लोग धर्म को लेकर लड़ने लगे, सब ने अपने-अपने धर्मों को महान बताना शुरू किया। अब मनुष्य सिर्फ दो प्रकार के नहीं रह गये थे। इस बदलाव ने अलग-अलग तरह के लोगों को जन्म दिया। पहले दो तरह के लोग तो अब भी मौजूद थे। लेकिन इसके अलावा कुछ और तरह के लोग भी आये। जैसे कि वे, जिसे सिर्फ दूसरे लोगों पर राज करना था, दूसरे वे जिन्हें केवल धन का मोह था। इन लोगों का ना ही धर्म के प्रति कोई आदर था और ना ही ये जिज्ञासु थे।
समय के साथ-साथ परिवर्तन की गति बढ़ती ही जा रही थी और हमने उसी दर के साथ विकास भी किया। हमने अपनी सुविधाओं के लिए बहुत सी वस्तुओं का निर्माण किया और प्रकृति का पूर्ण दोहन किया। हमने मशीने बनायीं, पूरी पृथ्वी को खत्म करने वाले हथियार बनाये, जंगलों को काटकर बिल्डिंगें बनायी। प्रकृति ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी, लेकिन हममें से कुछ भले मानुषों को कहाँ समझ आने वाला था। प्रकृति को तबाह करने का काम उसी तरह चलता रहा।
तब से लेकर अब तक हम बहुत बदल चुके हैं, बहुत ही ज्यादा। आज हम पूरी तरह से ही मशीनों पर निर्भर है। हालात ऐसे हैं, हमारे चारों तरफ प्रकृति से ज्यादा मानव निर्मित वस्तुएँ उपलब्ध हैं। आज हम एक ऐसे संसार में रह रहे हैं, जहाँ लोग सच से ज्यादा झूठ पर यकीन करते हैं। यहाँ पर विश्वास से ज्यादा अंधविश्वास है। अब तो लोग धर्म के नाम पर पूरी पृथ्वी को तबाह करने के लिए आतुर हैं।
Tuesday, 24 October 2017
शिक्षा पद्धति में बदलाव की जरूरत
भारत की शिक्षा पद्धति में आखिर इतनी खामियाँ क्यों हैं ? यहाँ पर ज्ञान से ज्यादा डिग्री को इतनी तवज्जो क्यों दी जाती है ? ऐसे ही अनेक उभरते हुए प्रश्नों के पीछे कहीं ना कहीं हम स्वयं जिम्मेदार हैं। एक जमाना था, जब भारतीय शिक्षा प्रणाली की दुनिया भर में धाक थी। तक्षशिला, नालंदा जैसे विश्वविद्यालय विदेशी छात्रों को अपनी तरफ आकर्षित करते थे; ठीक उसी तरह जिस तरह आज आॅक्सफोर्ड और हार्वर्ड यूनिवर्सिटीज विश्व भर के छात्रों को अपनी ओर खींचती हैं। लेकिन आज का परिदृश्य बिल्कुल ही बदल गया है। एक तो विश्व रैकिंग के मामले में हमारे देश की संस्थायें स्थान नहीं बना पाती और दूसरी ओर बाहर से आये पढ़ने वाले छात्रों की संख्या हमारे यहाँ न के बराबर है। यदि शोध की बात की जाए, तो फिर पूछना ही नहीं है। कुछ संस्थानों को छोड़ दिया जाए; जैसे की IISc, IITs, तो बाकी के संस्थानों में न तो शोध के लिए जरूरी उपकरण उपलब्ध हैं और ना ही फैकल्टी की इसमें कोई रूचि दिखायी देती है। वो बस अपनी नौकरी करते हैं और तनख्वाह वसूलते हैं। वैसे ये लोग करें भी क्या, इनका ज्ञान जो इनके आड़े आ जाता है। जो इन्हें बताता है कि हमारे देश में शोध की जरूरत ही नहीं है। इसके लिए तो कुछ चुनिंदा संस्थान और विश्व के बाकी संस्थान तो हैं ही।
इन शिक्षण संस्थानों को यदि हम रैंकिंग के नजरिये से ना भी देखें, तो भी हमारे यहाँ शिक्षा की गुणवत्ता बिल्कुल ही खराब है। यहाँ पर छात्र बस किसी भी तरह परीक्षा में पास होना चाहते हैं और वे ऐसा करने के लिए तथ्यों को समझने की बजाये रटते हैं। भले ही उनको उस विषय से सबंधित बातें समझ में आयीं हों या ना आयीं हों, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। अभिवावक व शिक्षकों की भी इसमें उतनी ही भागीदारी है, जितनी की छात्रों की। क्योंकि वे भी उन्हें परीक्षा में आये गये नम्बरों के आधार पर ही आँकते हैं। इस बात की संभावना है कि किसी परीक्षा में उच्च स्थान प्राप्त करने वाले छात्र की अपने विषय पर मजबूत पकड़ ना हो, लेकिन उसी परीक्षा में औसत या कम अंक लाने वाला छात्र, टाॅप करने वाले छात्र से बेहतर जानकारी रखता हो।
सबसे बड़ी बात तो नौकरी की है। ये सही है कि भविष्य में जीवन निर्वाह के लिए हमारा आर्थिक रूप से सक्षम होना जरूरी है। लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं है कि सभी छात्रों का एकमात्र लक्ष्य, सिर्फ नौकरी पाना ही हो और वे शिक्षा इसीलिए ग्रहण करें, ताकि उन्हें एक अच्छी नौकरी मिल सके। बहुत से अभिवाक या छात्र, शिक्षा को नौकरी पाने का एक जरिया भर मानते हैं, जबकि ऐसा मानना पूर्ण रूप से गलत है। छात्रों को शुरू से ही ये बताया जाता है कि यदि वो मन लगाकर नहीं पढ़ेगे, तो आगे चलकर अच्छी नौकरी नहीं मिलने वाली, शादी नहीं होने वाली और घर नहीं बनने वाला। इन सब के चक्कर में शिक्षा का अर्थ ही बदलता जा रहा है। शिक्षा हम सभी का एक अधिकार है, और ये अधिकार सिर्फ इसलिए नहीं है कि हमें आगे चलकर लाईफ में सेटल होना है; बल्कि ये अधिकार इसलिए भी है, क्योंकि हम समाज व देश के विकास में भागीदार हो सकें। दुनिया को व लोगों को समझ सकें, नयी चीजों का आविष्कार कर सकें। जब तक अभिवावकों व छात्रों के मन में शिक्षा को लेकर विचार नहीं बदलेंगे, तब तक लोगों को शिक्षा का महत्व नहीं समझ में आने वाला है।
हमें यदि अपने देश की शिक्षण पद्धति में सुधार लाना है, तो बदलाव शुरूआती स्तर से करनी होगी। प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों की शिक्षण व्यवस्था को बदलना होगा। हमें Quantity( Marks) की जगह Quality( ज्ञान) पर जोर देना होगा। ऐसा नहीं है कि Quality Education पर ध्यान देने वाले विद्यालय हमारे देश में नहीं हैं। सोनम वांगचूक द्वारा स्थापित SECMOL जैसै संस्थानों का ध्यान पूरी तरह से Quality Education पर ही है और ऐसे संस्थान हमारे देश के बाकी विद्यालयों व विश्वविद्यालयों के लिए एक अच्छा उदाहरण साबित हो सकते हैं। बस जरूरत है तो हम सभी को अपने विचारों को बदलने की और यदि विचार बदले, तो देश जरूर बदलेगा।
Sunday, 24 September 2017
भारत में काॅफी का विकास
बाबा बुदान ने 17वीं सदी में सात काॅफी बीन्स लाकर एक नयी शुरूआत की थी, क्योंकि उस समय काॅफी पर अरब साम्राज्य का एकाधिकार था और वे उन्हें सिर्फ roasted या boiled form में ही बाहर ले जाने देते थे। वे नहीं चाहते थे कि उनके अलावा कोई दूसरा देश काॅफी का व्यापार करे। बाबा बुदान के संत होने की वजह से उन्हें इन काॅफी बीन्स को भारत लाने में कोई दिक्कत नहीं हुयी। उनके द्वारा काॅफी को लाने के बाद, कर्नाटक के अलावा तमिलनाडु व केरल में भी बड़े पैमाने पर काॅफी के बागान लगाये गये। भारत में उगायी जाने वाली काॅफी दुनिया भर में सबसे अच्छी गुणवत्ता की काॅफी मानी जाती है, उसका कारण यह है कि इसे छाया में उगाया जाता है।
पहले भारत में काॅफी में शक्कर की जगह शहद का इस्तेमाल होता था। 17वीं और 18वीं सदी में अच्छी काॅफी की पहचान दूध के द्वारा की जाती थी और इस प्रकार की काॅफी को डिग्री काॅफी कहा जाता था। इसमें मिलाया गया दूध एकदम शुद्ध होता था और इस तरह का काॅफी पीना अमीर होने की पहचान माना जाता था।
Saturday, 23 September 2017
यथार्थ की तलाश : आँखों देखी
Friday, 22 September 2017
विज्ञान की समझ को आसान बनाते विज्ञान केंद्र
'सूचना का इतिहास' नामक एक सेक्शन में बहुत ही रोचक वस्तुएँ देखने को मिलती हैं। ये सेक्शन उन युवाओं को काफी मजेदार लगेगा, जो 20वीं सदी के अंत में पैदा हुए। क्योंकि पुराने जमाने कि बहुत सी ऐसी वस्तुएँ यहाँ रखी हुयी हैं, जो कि हमें उसी समय में लेकर चली जाती हैं। जैसे कि पहले के तार घर, लाईट हाउस, रेलवे स्टेशन के पुराने माॅडल, पुराने कैमरे, पुराने वाद्य यंत्र और भी बहुत कुछ। इस सेक्शन के आगे बढ़ने पर हम 'डिजिटल क्रांति' नाम के एक सेक्शन में प्रवेश करते हैं और ये सेक्शन डिजिटल दुनिया के विकास को प्रदर्शित करता है। यहाँ पर पहले के वो कम्यूटर भी रखे हुए हैं, जो कि आकार में बहुत बड़े होते थे और उनकी स्पीड कम होती थी। साथ ही साथ आजकल के आधुनिक कम्प्यूटर व स्मार्टफोन भी मौजूद हैं। इस सेक्शन में डिजिल इलेक्ट्राॅनिक्स से संबंधित कई कंपोनेन्ट्स जैसे IC(Integrated Circuit), transistors के बारे में भी बताया गया है।
तो जो लोग विज्ञान के इस रोचक संसार को करीब से जीना चाहते हैं, उसे जानना व समझना चाहते हैं, इतिहास को जीवित रूप में देखना चाहते हैं, ऐसे लोगों को इन विज्ञान केंद्रों के दर्शन जरूर करने चाहिए और अपनी सोच व समझ को विकसित करना चाहिए।
Saturday, 9 September 2017
संस्कृत बोलता एक गांव....
ऐसा माना जाता है कि मत्तुर भारत का आखिरी ऐसा गाँव है, जहाँ संस्कृत बोली जाती है। इस गाँव के सभी निवासी वैदिक जीवन व्यतीत करते हैं अर्थात् वो संस्कृत के ग्रंथों का सदैव पाठ करते हैं। यहाँ पर संस्कृत बोलने वाला शख्स कहीं भी और कभी भी देखा जा सकता है। दुकानदार और पंडित से लेकर छोटे बच्चे तक धड़ाधड़ संस्कृत बोलते हैं। और तो और, यहाँ पर तो कई लोग मोबाईल पर भी संस्कृत में बात करते दिख जायेंगे।
संस्कृत बोलने की वजह से यह गाँव बाहरी लोगों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। बहुत से लोग दूसरे शहरों से यहाँ संस्कृत सीखने आते हैं। मत्तूर के एक आचार्य के अनुसार, अब तो वे विदेशी लोगों को भी संस्कृत की शिक्षा दे रहे हैं; जो लोग इस गाँव में नहीं आ पाते, उन्हें 'skype' पर शिक्षा दी जाती है। ये इस बात का प्रमाण है कि मत्तूर के निवासियों ने वैदिक परंपरा को तो बनाये ही रखा है, साथ में वो आजकल की technology से भी up-to-date हैं।
शिक्षा के बाकी क्षेत्रों में भी मत्तूर पीछे नहीं है। यहाँ के लगभग हर परिवार में एक साॅफ्टवेयर इंजीनियर है और भी बहुत से छात्र मेडिकल, कला व विज्ञान के क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। इसके अलावा इस गाँव के कुछ व्यक्ति संस्कृत के प्रोफेसर के तौर पर भी विश्वविद्यालयों में कार्यरत हैं।
Wednesday, 6 September 2017
देशभक्ति के अर्थ को नये ढंग से परिभाषित करती फिल्म - रंग दे बसंती
इस फिल्म में निर्देशक ने बड़ी अच्छी तरह से ये दिखाने की कोशिश की है कि यदि युवाओं में कुछ कर गुजरने का जज्बा आ जाये, तो वे उसे कर के ही दम लेते हैं और तब देशभक्ति की एक नयी मिशाल पेश होती है। इस फिल्म में सरकारी सिस्टम पर भी एक तंज कसा गया है, जो कि उन पाँचों युवाओं के निर्दोष होने के बावजूद भी, उन्हें नहीं बख्शती।
स्टोरी व निर्देशन के अलावा इस फिल्म के लिखे गए गीत व संगीत कमाल के हैं। चाहे वो देश को समर्पित टाइटल ट्रैक 'रंग दे बसंती' हो या फिर माँ और बेटे के बिछुड़ने के दर्द को बयाँ करता हुआ 'लुका छिपी' गाना। हर गाने में प्रसून जोशी ने अपने शब्दों से व ए आर रहमान ने अपने धुनों से मन मोह लिया है। रही बात अदाकारी की, तो आमिर खान से लेकर वहीदा रहमान तक ने एक-एक सीन को बिल्कुल अच्छे से पकड़ा है। इसमें ऐलिस पैटन द्वारा निभाया गया, सू का किरदार भी अपना एक प्रभाव छोड़ता है। लेकिन सबसे अलग अदाकारी भगत सिंह व करन का रोल करने वाले एक्टर सिद्धार्थ ने की है। जिस तरह से सिद्धार्थ ने अपने फेसियल एक्सप्रेसन्स से अपने किरदार को मजबूती दी है, वो वाकई देखने लायक है।
कुल मिलाकर 'रंग दे बसन्ती' फिल्म बाॅलीवुड की बाकी कामर्शियल फिल्मों से बिल्कुल हटकर है। जैसा कि कई समीक्षकों ने लिखा है, ये फिल्म वाकई देशभक्ति की एक नयी परिभाषा को जन्म देता है। इस फिल्म में देशभक्ति भी है, काॅलेज की मस्ती भी है और कुछ जगहों पर प्यार की झलक भी देखने को मिल जाती है।
Friday, 1 September 2017
तोशाखाना - सरकारी तोहफों का निवास स्थान
जनवरी 2017 से लेकर मार्च 2017 तक अभी कुल 83 वस्तुएँ इस तोशाखाना में जमा हुयी हैं। जिसमें आइफोन-7, वुलेन मफलर, कलाई घड़ी, सिल्वर कलर प्लेट, कालीन और ऐसी ही बहुत सी चीजें हैं। इसमें सबसे ज्यादा वस्तुएँ वाणिज्य एवं उद्योग राज्य मंत्री निर्मला सितारमन ने जमा की हैं। इनके द्वारा इस बीच जमा की गयी कुल वस्तुओं की संख्या 17 है। इन्होंने एक टी पाॅट सेट, शैम्पेन ग्लासेस, एक baby doll (cloth), तीन wooden doll, एक पेन ड्राईव, एक पेंटिंग जैसी वस्तुएँ जमा कर के तोशाखाने की शोभा बढ़ाई है।
इस दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इसे तोशाखाने में एक Mont blanc ball point pen, एक मूर्ति (Argillite Carving), एक Malachite Stone वाला फूलों का हार जैसी वस्तुएँ जमा की हैं। जबकि विदेश मंत्री सुषमा स्वाराज ने इस तोशाखाने में एक कैंडल स्टैंड, एक काॅफी सेट, एक गणेश जी की मूर्ति व एक टी सेट जमा किया है।
Wednesday, 9 August 2017
तारा पान सेंटर - पांच हजारी पान की दुकान
Friday, 14 July 2017
इनरलाइन पास : जिन्दगी से रूबरू कराती एक यात्रा
Sunday, 5 March 2017
खगोलविज्ञान व गणित के महान पंडित : आर्यभट्ट
हमारे देश भारत में कई महान वैज्ञानिकों ने जन्म लिया है। इन्हीं महान वैज्ञानिकों में से एक नाम आर्यभट्ट का भी है। मूलत: हम सब इन्हें शून्य की खोज के लिये जानते हैं। शून्य की खोज के अलावा आर्यभट्ट ने खगोलविज्ञान और गणित के कई सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था। जिसकी वजह से वे विश्व के महानतम वैज्ञानिकों में से एक बन गये। बहुत से लोगों का यह मानना है कि सूर्य व पृथ्वी के बीच सही संबंधों को बतलाने वाला पहला व्यक्ति निकोलस कापरनिकस था। लेकिन आर्यभट्ट ने निकोलस कापरनिकस के जन्म के कई वर्ष पूर्व ही सूर्य व पृथ्वी के इन संबंधों को दुनिया के सामने रखा। इसके अलावा इन्होंने यह भी बतलाया कि चन्द्रमा और पृथ्वी जैसे दूसरे ग्रह अपने स्वयं के प्रकाश से नहीं बल्कि सूर्य के प्रकाश से चमकते हैं। हिन्दू धर्म के सूर्य व चन्द्र ग्रहण की पुरानी मान्यताओं को भी आर्यभट्ट ने गलत सिद्ध किया।
आर्यभट्ट द्वारा लिखे गये ग्रंथों में से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ आर्यभट्टीयम् है। इस ग्रंथ में खगोलशास्त्र, अंकगणित, बीजगणित और त्रिकोणमिति के कई नियम दिये गये हैं। आर्यभट्टीयम् को कभी-कभी आर्य-शत-अष्ट के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस ग्रंथ के पाठों में छंदो की संख्या 108 है। इस ग्रंथ में वर्गमूल (square root), घनमूल (cube root), समानान्तर श्रेणी ( Arithmetic Progression ) के साथ-साथ सतत भिन्न (Continued Function), द्विघात समीकरण (Quadratic Equation), Table of sines, घात श्रंखला के योग (Sums of power series) तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन मिलता है। इस पूरे ग्रंथ में 108 छंद है तथा इसे चार अध्यायों में विभाजित किया गया है। ये चार अध्याय गीतिकपाद, गणितपाद, कालक्रियापाद व गोलापद है। इन चारों अध्यायों में कल्प, युग, ज्यामितिक प्रगति, ग्रहों की स्थिति निर्धारण करने की विधि, पृथ्वी के आकार, दिन और रात के कारण जैसी अनेकों महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी गयी हैं। इस ग्रंथ की एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि ये ग्रंथ आज के आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है।
आर्यभट्ट ने उस समय बिना किसी आधुनिक उपकरणों की सहायता से पृथ्वी की परिधि का मान बिल्कुल सही-सही बताया। जिसमें आज के समय के अनुसार सिर्फ 65 मील की ही अशुद्धि है। उन्होंने पृथ्वी के घूमने के हिसाब से समय को विभाजित किया। इन्होंने सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग व कलयुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग और एक महायुग में चार युग सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग व कलयुग होते हैं। आर्यभट्ट ने पाई (pi) के सन्निकट मान पर भी कार्य किया। आर्यभट्टीयम् के दूसरे भाग में उन्होंने किसी वृत्त की परिधि और व्यास का अनुपात ज्ञात किया है और उन्होंने इसका मान 3.1416 बतलाया है। जो कि पाई के आज के ज्ञात मान से बिल्कुल मिलता है।
( फोटो - विकिपीडिया )
Thursday, 12 January 2017
शिक्षा - ज्ञान का माध्यम या जीवन-यापन की जरूरत
भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए नौकरी भी जरूरी है, लेकिन शिक्षा का इस कदर मजाक क्यों। क्यों लोग आजकल इसका सिर्फ इस्तेमाल कर रहे हैं ? सिर्फ डिग्रियों को महत्व देने वाले ऐसे लोग जब किसी जगह पर काम करने के लिए जाते हैं, तो वहाँ कि गुणवत्ता को तो प्रभावित करते ही हैं, साथ में अपने आस-पास के वातावरण को भी दूषित करते हैं। यदि ऐसे लोग अध्यापन के क्षेत्र में चले गये, फिर तो पूछना ही नहीं है। सरकारी प्राइमरी व माध्यमिक विद्यालयों का हाल तो हम सबको पता ही है। यहाँ पर शिक्षक पढ़ाने के उद्देश्य से कभी नहीं आते हैं। वे तो बस यहाँ पर आकर किसी भी तरह समय काटते हैं। फिर भी सरकार इन पर करोड़ों रूपये फूँक रही है व इनको तमाम सुविधायें उपलब्ध करा रही है। ऐसे ही लोगों कि वजह से हमारे देश में शिक्षा का स्तर दिनों पर दिन गिरता जा रहा है।
हमारे देश में हर साल हजारों की संख्या में इंजीनियरिंग के स्टूडेंट्स ग्रेजुएट होते हैं, लेकिन इनमें से कितने ऐसे हैं, जिनकी वास्तव में इस क्षेत्र में रूचि होती है। यदि देखा जाए तो यह संख्या बहुत ही कम है। वे इसे या तो इसलिए पढ़ रहे होते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इस कोर्स को पूरा करने के बाद उन्हें एक अच्छी नौकरी मिल जायेगी या यदि वे जानते भी हैं कि उनकी इस क्षेत्र में रूचि नहीं है, फिर भी अभिवावक के दबाव में आकर उन्हें ऐसा करना पड़ता है। परिणाम यह होता है कि कोर्स को पूरा कर लेने के बाद भी वे बेरोजगार होते हैं। यदि ऐसे लोग शिक्षा को नौकरी पाने का जरिया न मानकर ज्ञान प्राप्ति का साधन मानें व उसी क्षेत्र में अपना करियर बनाये, जिनमें उनकी रूचि हो तो कितना अच्छा है। बहुत से लोग पुराने परंपरागत कोर्सों जैसे इंजीनियरिंग, डाॅक्टरी को ही सही मानते है और सोचते हैं कि इसी से भविष्य सुरक्षित रह सकता है। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। संगीत, नृत्य, कला जैसे अलग क्षेत्र भी शिक्षा के ही एक भाग हैं। ऐसा नहीं है कि जिसने B.Tech, MBBS, LLB, PHD किया हो वही शिक्षित हो। अपने क्षेत्र में कुशल होना ही वास्तविक शिक्षा है। चाहे व सामाजिक क्षेत्र हो या फिर कुछ और।
मैंने बहुतों को तो यह कहते भी सुना है कि जिन्दगी भर पढ़ते व सीखते ही रहोगे क्या। वे यह नहीं जानते कि जीवन पर्यन्त पढ़ते व सीखते रहने से हमारे अपने ही ज्ञान में वृद्धि होगी। सोचिये जरा यदि नौकरी मिल जाने के बाद हम पढ़ना, लिखना और कुछ सीखना छोड़ दें, और जिन्दगी काटते-काटते एक दिन इस दुनिया को अलविदा कह दें तो इसका कोई फायदा है। इससे अच्छा है कि हम रोज कुछ न कुछ पढ़ते व सीखते रहें व इस दुनिया को एक नये नजरिये से देखें व समझें।