Sunday 17 December 2017

कठिन परिस्थितियों में पनपे विचारों को बतलाती ऐन की डायरी


'द डायरी आॅफ ए यंग गर्ल', दुनिया की सबसे चर्चित डायरी और द्वितीय विश्व युद्ध के महत्वपूर्ण दस्तावेजों में से एक। एक 14-15 साल की यहूदी लड़की ऐन फ्रैंक द्वारा लिखी गयी इस डायरी में, सिर्फ रोजाना की घटनाओं का वर्णन भर ही नहीं है। बल्कि इसमें उन सभी लोगों का दर्द छिपा हुआ है; जिन्होंने उस दौरान एक ऐसे समय को झेला था, जहाँ पर उन सभी की इंसानी मान्यता न के बराबर थी। इस डायरी में एक लड़की की आंतरिक भावनायें छुपी हैं, वो अहसास छिपा है जिसे उसकी चाहत थी। 

1942 का साल, द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू हुए तीन साल हो चुके थे और एडोल्फ हिटलर पूरे यूरोप में यहूदियों के खिलाफ अभियान शुरू कर चुका था। इसी साल 12 जून को ऐन को उनके जन्मदिन पर अपने पिता से एक लाल रंग की डायरी उपहार में मिलती है और वो डायरी लिखना शुरू कर देती हैं। ये डायरी उनके सबसे अच्छे तोहफों में से एक थी। क्योंकि अभी तक उनके पास कोई ऐसा नहीं था, जिससे वो अपनी हर बात कह सके। लेकिन अब उनके पास उनकी 'किटी' थी, जैसा कि वो डायरी को संबोधित करती हैं। इस डायरी में उन्होंने यहूदियों पर लगाई गयी पाबंदियों के बारे में लिखा है, " यहूदियों को पीला सितारा लगाना होता था, उन्हें कार से चलने की मनाही थी चाहे वो उनकी अपनी ही क्यों न हो, यहूदी थिएटर नहीं जा सकते थे "। इससे पता चलता है कि उस समय यहूदी आजाद होते हुए भी आजाद नहीं थे। फिर भी उस समय वो अपने घर पर तो रह सकते थे। लेकिन ऐसा समय ज्यादा दिन तक नहीं रहा। कुछ महीनों बाद जर्मन सेना नीदरलैंड पहुँची और उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा। जर्मन सेना से बचने के लिए वो अपने परिवार के साथ ऐम्सटर्डम की उस इमारत के ऊपरी हिस्से में किताबों की आलमारी के पीछे छिपने चली गयीं, जहाँ उनके पिता काम करते थे। यहाँ पर ऐन के परिवार के अलावा उनके साथ एक और परिवार उस छोटी सी जगह में छिपा रहा। इस जगह पर छिपने के लिए ऐन के पिता आॅटो फ्रैंक के कुछ ईसाई दोस्तों ने उनकी मदद की।

इस छोटी सी बंद जगह पर ये आठ लोग सालों तक रहे। यहाँ से वो न तो कहीं बाहर जा सकते थे और न ही कुछ चुने हुए लोगों के अलावा किसी से बात कर सकते थे। ऐन अपनी डायरी में उस जगह को अनेक्स कह कर बुलाती हैं। अनेक्स में रहते हुए ये सभी कई बार ऐसे समय से गुजरे, जब उन्हें बिना बोले, बिना हिले-डुले पूरा दिन गुजारना पड़ता था। इस डायरी में अनेक्स में मनाये जाने वाले उत्सवों व अक्सर होने वाले आपसी झगड़ों के बारे में भी पता चलता है। जो यहाँ होना लाजमी था। इसके अलावा उन्होंने हमेशा होने वाले गोला, बारूदों व गोलियों के आवाजों की चर्चा भी की है। जिसकी तेज आवाजों से उस जगह पर सोना भी दुसवार था। 

इस डायरी को पढ़ने पर ये कभी नहीं लगता कि ये डायरी एक चौदह साल की लड़की के द्वारा लिखी गयी है। यहाँ पर उन्होंने अपने कुछ ऐसे विचारों को साझा किया है, जो एक बहुत अनुभवी विचारक ही सोच सकता है। जिसने पूरी दुनिया देखी हो व अलग-अलग परिस्थितियों का सामना किया हो। मेरा ऐसा मानना है कि एक बंद जगह पर रहते हुए और वहाँ पर खुद को अलग पाकर, ऐन के विचारों में परिपक्वता जल्दी आयी हो। इस डायरी के माध्यम से उन्होंने अपने आप को पूरा खोल कर रख दिया। जो शायद आसान बात नहीं थी और ऐसे शख्स के लिए तो बिल्कुल भी नहीं, जो हर वक्त एक डर के साथ जी रहा हो। 'कागज में लोगों से ज्यादा धीरज होता है' , ये कहकर ऐन अपनी डायरी के बहुत ही करीब दिखायी पड़ती हैं।

अनेक्स में ये आठों लोग करीब दो सालों तक छिपे रहे। अगस्त 1944 में किसी ने उन लोगों के छुपे होने की खबर दे दी और उन सभी लोगों को बंदी शिविर में डाल दिया गया। साथ ही उनकी मदद करने वाले ईसाई दोस्तों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। फरवरी के आखिर में बंदी शिविर में फैले टाइफस के कारण ऐन फ्रैंक की मृत्यु हो गयी। उन आठ लोगों में से एक अकेले आॅटो फ्रैंक ही थे, जो उस बंदी शिविर से जिंदा बचकर निकले थे। इसके बाद उन्होंने अपनी बेटी के विचारों को पूरी दुनिया तक पहुँचाया।

ऐन फ्रैंक बहुत छोटी सी ही उम्र में ही दुनिया को अलविदा कह गयी, लेकिन उनके विचार, अलग अलग लोगों के प्रति उनका नजरिया, दुनिया के प्रति उनकी समझ व उनकी कलात्मक दृष्टि अभी भी ज़िन्दा है। उनकी डायरी के माध्यम से युद्ध के दौरान का वो खौफनाक मंजर अभी भी हमारे सामने बिल्कुल वैसा ही दिखायी पड़ता है।

Saturday 16 December 2017

वो मेजर जिसने एक पैर न होने के बावजूद भी सेना को कमांड किया


आज का दिन भारत के लिए ऐतिहासिक है, क्योंकि आज ही के दिन सन् 1971 में भारत ने पाकिस्तान को शिकस्त दी थी और पूर्वी पाकिस्तान को आजाद कराया था। जिसके फलस्वरूप बांग्लादेश अस्तित्व में आया। पूरे देश में हम 16 दिसम्बर को विजय दिवस के रूप में मनाते हैं। उस समय पाकिस्तानी बलों के कमांडर जनरल ए.ए.के. नियाजी ने भारत के पूर्वी सैन्य कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। जिसके बाद 93000 पाकिस्तानी सैनिकों को युद्ध बंदी बनाया गया।

1971 के इस युद्ध में करीब 3,900 भारतीय सैनिक शहीद हो गये थे और 9,851 सैनिक घायल हुए थे। हमारे देश के हर एक सैनिक ने दुश्मन का जाबांजी से मुकाबला किया और अपनी वीरता का परिचय दिया। उन्हीं जाबांज सैनिक में से एक थे मेजर जनरल इयान कारदोज़ो, जो उस समय मेजर के पद पर थे। इस युद्ध में उन्होंने अपना एक पैर खुद ही काट डाला था।

युद्ध के दौरान मेजर कारदोज़ो का पैर लैंडमाइन पर पड़ गया, जिसकी वजह से उनका एक पैर गंभीर रूप से घायल हो गया। जब वो डाॅक्टर के पास गये, तो उन्होंने डाॅक्टर से माॅरफीन माँगा‌‍। लेकिन माॅरफीन तो खत्म हो चुकी थी। फिर उन्होंने वहाँ मौजूद एक सैनिक से कोई काटने वाली चीज लाने को कहा। वो सैनिक जब खुखरी लेकर उनके पास पहुँचा, तो उन्होंने उससे अपना पैर काटने को कहा। लेकिन सैनिक ने कहा कि ये मुझसे नहीं हो पायेगा। तब उन्होंने खुद ही खुखरी उठायी और अपना पैर काट डाला। ऐसा करना बेशक आसान काम नहीं था, लेकिन उस समय उन्होंने वो हिम्मत दिखायी और वीरता की मिशाल कायम की।

मेजर कारदोज़ो यहीं नहीं रूके, एक पैर गँवाने के बावजूद भी उनके अन्दर सैनिकों वाला जज्बा अभी भी कायम था। वो फौज में अपनी सेवा जारी रखना चाहते थे। लेकिन अंग नष्ट होने के कारण उनका सेना में बना रहना मुश्किल था। इसके लिए उन्होंने नकली पैर लगाकर ही कड़ी मेहनत की और खुद को साबित किया। कई चरणों से गुजरने के बाद वे मेजर जनरल के ओहदे तक पहुँचे। वे भारतीय सेना के पहले ऐसे अधिकारी बने, जिसने अंग नष्ट होने के बावजूद भी सेना के बटालियन और ब्रिगेड का कमांड किया और सेना मेडल से नवाजे जाने वाले पहले अधिकारी भी मेजर जनरल कारदोज़ो ही थे। उनके इस हौसले व जज्बे ने उन सैनिकों के लिए राह आसान कर दी, जो अंग नष्ट होने के बावजूद भी देश की सेवा करते रहना चाहते हैं। उन्होंने ये दिखा दिया कि शारीरिक अक्षमता भी एक सैनिक को देश की सेवा करने से रोक नहीं सकती।


                                                                                                  ( फोटो - विकिपीडिया )

Friday 15 December 2017

लोकतंत्र में जनता की विचारधारा और कर्तव्य

चुनावों के इस सीजन में जब भी कोई न्यूज चैनल खोलकर बैठो, तो अक्सर राजनेता आपस में लड़ते हुए ही दिखायी पड़ते हैं। कोई किसी की गलतियों को गिना रहा होता है, तो कोई अपने द्वारा किये गये महत्वपूर्ण कार्यों का उल्लेख कर रहा होता है। इन लोगों की कोशिश यही रहती है कि किसी भी तरह दूसरों को नीचा दिखायें व खुद को ऊँचा उठायें। कभी-कभी तो ये लड़ाईयाँ टीवी से निकलकर उन लोगों के बीच भी आ पहुँचती हैं, जो इन्हें देख रहे होते हैं। दर्शकों के बीच दो गुट बन जाता हैं। यहाँ पर जनता भी अपनी-अपनी पार्टियाँ चुनती है और अपनी पसंद की पार्टीयों का अच्छी तरह से प्रचार प्रसार करती है। इस तरह की स्थितियों में जनता 'सरकार चुनने वाला आम नागरिक' न बन कर, किसी पार्टी की कार्यकर्ता अधिक दिखायी पड़ती है। आजकल तो सोशल मीडिया इस तरह के प्रचार प्रसार का अच्छा माध्यम बन गया है और यहाँ पर अधिकतर प्रचार 'आम जनता-cum-आम कार्यकर्ता' के द्वारा ही किया जा रहा है।

सरकार द्वारा किये गये कार्यों की सराहना करना व पार्टीयों का प्रचार करना, दो अलग-अलग चीजें हैं। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि वर्तमान की सरकार ने जो निर्णय लिए हैं या फिर जो कार्य किया है, वो पिछली सरकार द्वारा किये गये कार्यों से बहुत ही बेहतर है। उनके द्वारा उठाये गये कदमों की हमें वाकई प्रशंसा करनी चाहिए। लेकिन इसका मतलब ये तो बिल्कुल भी नहीं है कि हम इनकी कमियों को नजरअंदाज कर दें। किसी भी देश में लोकतंत्र की सबसे मजबूत कड़ी वहाँ की जनता ही होती है। देश के नागरिकों का ये कर्तव्य बनता है कि वो सही और गलत में फर्क करे। यदि सरकार का किसी विषय पर ध्यान नहीं जा रहा, तो जनता को ये चाहिए कि वो उसे उस बारे में याद दिलाये। यदि सरकार द्वारा लिया गया कोई फैसला गलत है, तो वो उसका विरोध करे या फिर अपनी राय प्रकट करे। मगर आज ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।

आज से सालों पहले इंदिरा गाँधी की लहर थी। लोग उनके भाषणों से बहुत प्रभावित होते थे और उन्हें बहुत मानते थे। लेकिन उस समय के 1984 के दंगों को कौन भूल सकता है, जहाँ पर पूरे देश में सिखों को अपने सिख होने का दंश झेलना पड़ा था। कुछ ऐसा ही आज भी है; जहाँ पर यदि कोई सरकार की गलतियों को गिनाने भी लगता है, तो उसे या तो दूसरे पार्टी का समर्थक कहा जाता है, नहीं तो फिर धर्म को आड़े लाया जाता है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि ऐसा वही लोग कहते हैं, जो 'आम कार्यकर्ता' हैं। हमें ये तय करना होगा कि हमें कार्यकर्ता बनना है या फिर आम जनता। दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं। लेकिन दोनों जब साथ में आकर 'आम कार्यकर्ता' बन जाते हैं, तो ये हमारे देश व लोकतंत्र दोनों के लिए घातक साबित हो सकता है। जिस किसी को लगता है कि वो राजनीति में जाकर देश के विकास में अपना योगदान दे सकता है, तो उसे उस दिशा में जरूर आगे बढ़ना चाहिए। लेकिन आम जनता रहते हुए, किसी एक पार्टी का कार्यकर्ता बन जाना, उसका प्रचार करना व उसके विरूद्ध कुछ न सुनना, ये एक अच्छे लोकतंत्र की निशानी नहीं है।

Thursday 14 December 2017

आम आदमी के जीवन को दर्शाता सिनेमा


सिनेमा, मनोरंजन का एक बेहतरीन माध्यम। जब भी मूड खराब हो या खाली समय में कुछ करने के लिए ना हो, तो हम सभी के दिमाग में पहला खयाल फिल्में देखने का ही आता है। मूड को ठीक करने के मामले में ये कारगर भी साबित होता है। लेकिन कुछ फिल्में ऐसी भी होती हैं, जो अपने पीछे एक सवाल छोड़ जाती हैं। ये वो फिल्में होती हैं, जो हमें सोचने पर मजबूर करती हैं। इन फिल्मों का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन ही नहीं बल्कि 'कुछ' कहना भी होता है। कभी ये फिल्में किसी इंसान के आत्मीय दर्द को बयाँ करती हैं, तो कभी हमारे सिस्टम व समाज के रवैये पर चोट करती हैं।

बचपन से जिस तरह की फिल्में मैं देखता आया हूँ, उसका मुख्य केंद्र बिंदु मनोरंजन ही रहा है। वही 'लार्जर दैन लाईफ' वाली फिल्में, जिसका हमारे वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं होता। लेकिन पिछले एक दो सालों में जिस तरह के सिनेमा से मेरा परिचय हुआ है, वे सिर्फ मनोरंजन के उद्देश्य से बनायीं गयी फिल्में नहीं थी। बल्कि उनकी कहानी में यथार्थ नजर आता है। ' एक डाॅक्टर की मौत ' को देखने से पहले मैं नहीं जानता था कि आर्ट फिल्म क्या होती है, पैरेलल सिनेमा क्या होता है। इसके पहले तो हमें बस बाॅलीवुड, हाॅलीवुड और साउथ इंडियन सिनेमा के बारे में ही पता था। इसे देखने के बाद पता चला कि किसी भी फिल्म में मुख्य किरदार हीरो या हीरोईन नहीं, बल्कि कहानी भी हो सकती है।

मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, तपन सिन्हा, गोविन्द निहलानी और भी न जाने कितने ऐसे फिल्मकारों के नाम है; जिन्होंने काॅमर्शियल फिल्मों से इतर हटकर बेहतरीन यथार्थपरक फिल्में बनायी हैं। यदि पैरेलल सिनेमा के किरदारों की बात की जाए, तो हम स्मिता पाटिल, शबाना आजमी व नसीरुद्दीन शाह के योगदान को कैसे भूल सकते हैं। इन्होंने भारतीय सिनेमा के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है और अपनी अदाकारी से सबको प्रभावित किया है।

ऐसा नहीं है कि पहले ऐसी फिल्में नहीं बनती थीं। 60 के दशक के पहले हमारे सिनेमा में पैरेलल व कामर्शियल का बँटवारा नहीं था। उस समय फिल्में सिर्फ अच्छी या बुरी ही होती थीं। उस दौर की फिल्मों को यदि याद किया जाये, तो गुरूदत्त की 'प्यासा', 'कागज के फूल' , महबूब खान की 'मदर इंडिया', सत्यजीत रे की 'पाथेर पांचाली' इसी तरह की ही फिल्में थीं। इन सब के अलावा वी. शांताराम, ऋषिकेश मुखर्जी, विमलराय, ऋत्विक घटक भी यथार्थपरक फिल्में बनाने के लिए ही जाने जाते हैं। लेकिन 60 के दशक के बाद ऐसी फिल्मों का बनना लगभग बंद ही हो गया था। उस दौरान फिल्मों में बस मसाला डाला जा रहा था और शायद लोगों की भी डिमांड उस वक्त यही रही हो। ऐसा नहीं था कि 60 के दशक के बाद की फिल्में अच्छी नहीं थी। लेकिन वो समाज को कुछ दर्शा नहीं रही थी।

1968 में जब मृणाल सेन ने 'भुवनशोम' बनायी, तो भारतीय सिनेमा में आर्ट फिल्मों ( पैरेलल सिनेमा ) की नींव पड़ी और इसने एक नये आंदोलन का शुभारंभ किया। पूरी फिल्म इंडस्ट्री दो भागों में बँट गयी। एक तरफ लोगों को भरपूर मनोरंजन परोसने वाला मेनस्ट्रीम (कामर्शियल) सिनेमा था, तो वहीं दूसरी तरफ आम जन की जिंदगी से रूबरु कराने वाला पैरेलल सिनेमा। दोनों अपने-अपने रास्ते पर आगे बढ़े, लेकिन यहाँ पर प्रोड्यूसर्स व डिस्ट्रीब्यूटर्स की पहली पसंद मेनस्ट्रीम सिनेमा ही था। फिर भी श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकारों ने मुख्यधारा में रहकर कभी फिल्में नहीं बनायी। ऐसे फिल्मकारों ने वही बनाया, जो वे बनाना चाहते थे और उस समय कुछ हद तक सरकार ने भी आर्ट फिल्मों को प्रोत्साहित किया। भले ही ये फिल्में चली न हों, लेकिन इन्होंने अपनी कहानी से क्रिटिक्स व दर्शकों के एक तबके को प्रभावित तो जरूर किया। 
यदि हम 21वीं सदी के पैरेलल सिनेमा की बात करें, तो नीरज घेवान, आनंद गाँधी, रजत कपूर जैसे फिल्मकारों का नाम सामने आता है। नीरज घेवान द्वारा निर्देशित 'मसान' ने तो कांस फिल्म फेस्टिवल्स में भी अपनी छाप छोड़ी थी। अब हालात थोड़े बदलते हुए दिखायी दे रहे हैं और दर्शकों की डिमांड भी बदलती जा रही है। आज के दर्शक 'बिना आधार, केवल मनोरंजन' वाले सिनेमा को उतना महत्व नहीं दे रहे हैं। बल्कि अच्छे कंटेट को स्वीकार किया जा रहा है। अब पैरेलल सिनेमा बनकर एक कोने में यूँ ही पड़ा नहीं रहता, बल्कि वो आम दर्शकों तक भी पहुँच रहा है। 'दृश्यम फिल्म्स' जैसे प्रोडक्शन हाऊस ने भी इस दिशा में एक बेहतरीन कदम उठाया है। इसके बैनर तले बनी सारी फिल्में एक अच्छे सिनेमा का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।

Sunday 29 October 2017

परिवर्तन की यात्रा

एक समय था, जब कुछ नहीं था। ना जीव, ना पेड़ पौधे और ना ही रोशनी। फिर शुरूआत हुयी जीवन की। पेड़-पौधे आये, जानवर आये, मनुष्य आये। हम मनुष्यों ने जीना सीखा, रहना सीखा, खेती करना सीखा और उन सभी चीजों को सीखते गये; जिसकी हमें जरूरत थी। धीरे-धीरे हममें बदलाव आता गया और हम आगे बढ़ते रहे। बदलाव के इस चरण में हमारी बुद्धि का भी विकास होता रहा और आस-पास के चीजों को समझने की हमारी समझ बढ़ती गयी। हमने प्रकृति को अपने हिसाब से बदलना शुरू किया या फिर ऐसा कह लें, उसका इस्तेमाल करना शुरू किया। फिर हमारी बुद्धि और भी खुली। हमने लोगों का समूह बनाया और फिर शुरू हुआ बँटवारे का खेल।

लोगों द्वारा बनाये गये समूहों ने अलग-अलग इलाकों पर कब्जा करना शुरू किया और 'अधिकार' की उत्पत्ति हुयी। इस 'अधिकार' ने न जाने कितने शब्दों को जन्म दिया - 'युद्ध', 'लालच', 'घृणा' , 'छल' और भी ऐसे बहुत से शब्द। चीजें बदलती रहीं, वक्त बदलता रहा और सबसे बड़ी बात हम मनुष्यों के विचार बदलते रहे। इन बदलते हुए विचारों के परिणाम स्वरूप कुछ ने 'उत्पत्ति' का रहस्य जानना चाहा, वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों ने अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए साधन ढूँढने शुरू कर दिये। इन दोनों ही तरह के लोगों ने अपने-अपने क्षेत्रों में कामयाबी पायी। पहले ने साक्ष्य ढूँढे, समय और परिवर्तन का विश्लेषण किया और फिर कुछ नियम बनाये और नियमों को आने वाली पीढ़ियों को सौंपा। जिन लोगों को ऐसा लगता था कि उन्हें अपने अस्तित्व को बचाये रखना है, उन लोगों ने नींव डाली नए मान्यताओं की, नए धर्मों की। ऐसा नहीं है कि इन लोगों ने नियम नहीं बनाये, नियम तो इन लोगों ने भी बनाये। लेकिन इसका इस्तेमाल बाकी लोगों को डराने के लिए किया गया, अपनी साख को बचाये रखने के लिए किया गया। कहीं ना कहीं इन मान्यताओं और धर्मों की जरूरत भी थी, क्योंकि सबके विचार एक जैसे नहीं थे। ये धर्म उन लोगों के बड़े काम आये, जो जिज्ञासु प्रवृत्ति के नहीं थे। इन सब के बीच भाषा और शैली ने भी अपनी-अपनी भूमिकायें निभायीं।

वक्त ने फिर अपनी रफ्तार पकड़ी और परिवर्तन की आँधी एक बार फिर जोरों से चली। हम अब पूरी तरह से बदल चुके थे। जिस धर्म की शुरूआत, लोगों के अस्तित्व को बचाये रखने के लिए की गयी थी, उसी धर्म ने लोगों के अस्तित्व को खतरे में डालना शुरू कर दिया। लोग धर्म को लेकर लड़ने लगे, सब ने अपने-अपने धर्मों को महान बताना शुरू किया। अब मनुष्य सिर्फ दो प्रकार के नहीं रह गये थे। इस बदलाव ने अलग-अलग तरह के लोगों को जन्म दिया। पहले दो तरह के लोग तो अब भी मौजूद थे। लेकिन इसके अलावा कुछ और तरह के लोग भी आये। जैसे कि वे, जिसे सिर्फ दूसरे लोगों पर राज करना था, दूसरे वे जिन्हें केवल धन का मोह था। इन लोगों का ना ही धर्म के प्रति कोई आदर था और ना ही ये जिज्ञासु थे।

समय के साथ-साथ परिवर्तन की गति बढ़ती ही जा रही थी और हमने उसी दर के साथ विकास भी किया। हमने अपनी सुविधाओं के लिए बहुत सी वस्तुओं का निर्माण किया और प्रकृति का पूर्ण दोहन किया। हमने मशीने बनायीं, पूरी पृथ्वी को खत्म करने वाले हथियार बनाये, जंगलों को काटकर बिल्डिंगें बनायी। प्रकृति ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी, लेकिन हममें से कुछ भले मानुषों को कहाँ समझ आने वाला था। प्रकृति को तबाह करने का काम उसी तरह चलता रहा।

तब से लेकर अब तक हम बहुत बदल चुके हैं, बहुत ही ज्यादा। आज हम पूरी तरह से ही मशीनों पर निर्भर है। हालात ऐसे हैं, हमारे चारों तरफ प्रकृति से ज्यादा मानव निर्मित वस्तुएँ उपलब्ध हैं। आज हम एक ऐसे संसार में रह रहे हैं, जहाँ लोग सच से ज्यादा झूठ पर यकीन करते हैं। यहाँ पर विश्वास से ज्यादा अंधविश्वास है। अब तो लोग धर्म के नाम पर पूरी पृथ्वी को तबाह करने के लिए आतुर हैं।

Tuesday 24 October 2017

शिक्षा पद्धति में बदलाव की जरूरत

भारत की शिक्षा पद्धति में आखिर इतनी खामियाँ क्यों हैं ? यहाँ पर ज्ञान से ज्यादा डिग्री को इतनी तवज्जो क्यों दी जाती है ? ऐसे ही अनेक उभरते हुए प्रश्नों के पीछे कहीं ना कहीं हम स्वयं जिम्मेदार हैं। एक जमाना था, जब भारतीय शिक्षा प्रणाली की दुनिया भर में धाक थी। तक्षशिला, नालंदा जैसे विश्वविद्यालय विदेशी छात्रों को अपनी तरफ आकर्षित करते थे; ठीक उसी तरह जिस तरह आज आॅक्सफोर्ड और हार्वर्ड यूनिवर्सिटीज विश्व भर के छात्रों को अपनी ओर खींचती हैं। लेकिन आज का परिदृश्य बिल्कुल ही बदल गया है। एक तो विश्व रैकिंग के मामले में हमारे देश की संस्थायें स्थान नहीं बना पाती और दूसरी ओर बाहर से आये पढ़ने वाले छात्रों की संख्या हमारे यहाँ न के बराबर है। यदि शोध की बात की जाए, तो फिर पूछना ही नहीं है। कुछ संस्थानों को छोड़ दिया जाए; जैसे की IISc, IITs, तो बाकी के संस्थानों में न तो शोध के लिए जरूरी उपकरण उपलब्ध हैं और ना ही फैकल्टी की इसमें कोई रूचि दिखायी देती है। वो बस अपनी नौकरी करते हैं और तनख्वाह वसूलते हैं। वैसे ये लोग करें भी क्या, इनका ज्ञान जो इनके आड़े आ जाता है। जो इन्हें बताता है कि हमारे देश में शोध की जरूरत ही नहीं है। इसके लिए तो कुछ चुनिंदा संस्थान और विश्व के बाकी संस्थान तो हैं ही।
        
        इन शिक्षण संस्थानों को यदि हम रैंकिंग के नजरिये से ना भी देखें, तो भी हमारे यहाँ शिक्षा की गुणवत्ता बिल्कुल ही खराब है। यहाँ पर छात्र बस किसी भी तरह परीक्षा में पास होना चाहते हैं और वे ऐसा करने के लिए तथ्यों को समझने की बजाये रटते हैं। भले ही उनको उस विषय से सबंधित बातें समझ में आयीं हों या ना आयीं हों, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। अभिवावक व शिक्षकों की भी इसमें उतनी ही भागीदारी है, जितनी की छात्रों की। क्योंकि वे भी उन्हें परीक्षा में आये गये नम्बरों के आधार पर ही आँकते हैं। इस बात की संभावना है कि किसी परीक्षा में उच्च स्थान प्राप्त करने वाले छात्र की अपने विषय पर मजबूत पकड़ ना हो, लेकिन उसी परीक्षा में औसत या कम अंक लाने वाला छात्र, टाॅप करने वाले छात्र से बेहतर जानकारी रखता हो।
         सबसे बड़ी बात तो नौकरी की है। ये सही है कि भविष्य में जीवन निर्वाह के लिए हमारा आर्थिक रूप से सक्षम होना जरूरी है। लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं है कि सभी छात्रों का एकमात्र लक्ष्य, सिर्फ नौकरी पाना ही हो और वे शिक्षा इसीलिए ग्रहण करें, ताकि उन्हें एक अच्छी नौकरी मिल सके। बहुत से अभिवाक या छात्र, शिक्षा को नौकरी पाने का एक जरिया भर मानते हैं, जबकि ऐसा मानना पूर्ण रूप से गलत है। छात्रों को शुरू से ही ये बताया जाता है कि यदि वो मन लगाकर नहीं पढ़ेगे, तो आगे चलकर अच्छी नौकरी नहीं मिलने वाली, शादी नहीं होने वाली और घर नहीं बनने वाला। इन सब के चक्कर में शिक्षा का अर्थ ही बदलता जा रहा है। शिक्षा हम सभी का एक अधिकार है, और ये अधिकार सिर्फ इसलिए नहीं है कि हमें आगे चलकर लाईफ में सेटल होना है; बल्कि ये अधिकार इसलिए भी है, क्योंकि हम समाज व देश के विकास में भागीदार हो सकें। दुनिया को व लोगों को समझ सकें, नयी चीजों का आविष्कार कर सकें। जब तक अभिवावकों व छात्रों के मन में शिक्षा को लेकर विचार नहीं बदलेंगे, तब तक लोगों को शिक्षा का महत्व नहीं समझ में आने वाला है।

हमें यदि अपने देश की शिक्षण पद्धति में सुधार लाना है, तो बदलाव शुरूआती स्तर से करनी होगी। प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों की शिक्षण व्यवस्था को बदलना होगा। हमें Quantity( Marks) की जगह Quality( ज्ञान) पर जोर देना होगा। ऐसा नहीं है कि Quality Education पर ध्यान देने वाले विद्यालय हमारे देश में नहीं हैं। सोनम वांगचूक द्वारा स्थापित SECMOL जैसै संस्थानों का ध्यान पूरी तरह से Quality Education पर ही है और ऐसे संस्थान हमारे देश के बाकी विद्यालयों व विश्वविद्यालयों के लिए एक अच्छा उदाहरण साबित हो सकते हैं। बस जरूरत है तो हम सभी को अपने विचारों को बदलने की और यदि विचार बदले, तो देश जरूर बदलेगा।
  

Sunday 24 September 2017

भारत में काॅफी का विकास

सुबह उठने के बाद हम सभी को चाय या काॅफी का इंतजार रहता ही है। हममें से बहुत लोगों को यदि सुबह-सुबह ये पेय न मिले, तो दिमाग फ्रेश नहीं होता। जो लोग रात भर काम करते हैं, उनके लिए भी काॅफी किसी वरदान से कम नहीं है। यहाँ पर लोग बरिस्ता जैसे हाई क्वालिटी के कैफे में भी काॅफी पीते हैं और घर पर एक रूपये के पैकेट वाली कॉफी भी बनाते हैं। भारत में काॅफी मुख्य पेय पदार्थों में से एक है। लेकिन 17वीं सदी के पहले भारत में काॅफी का नामोंनिशान तक मौजूद नहीं था। भारत में काॅफी लाने का श्रेय एक सूफी संत बाबा बूदान को जाता है। बाबा बूदान जब हज करके भारत वापस आ रहे थे, तो उन्होंने मोका यमन के पोर्ट से सात काॅफी बीन्स लिए और उसे लेकर भारत आ गये। इन काॅफी बीन्स को कर्नाटक के चिक्कामगलुर जिले में चंद्रगिरी की पहाड़ियों पर उगाया गया और आजकल इसे बाबा बुदान गिरी या बाबा बुदान फाॅरेस्ट के नाम से जाना जाता है। 
       
        बाबा बुदान ने 17वीं सदी में सात काॅफी बीन्स लाकर एक नयी शुरूआत की थी, क्योंकि उस समय काॅफी पर अरब साम्राज्य का एकाधिकार था और वे उन्हें सिर्फ roasted या boiled form में ही बाहर ले जाने देते थे। वे नहीं चाहते थे कि उनके अलावा कोई दूसरा देश काॅफी का व्यापार करे। बाबा बुदान के संत होने की वजह से उन्हें इन काॅफी बीन्स को भारत लाने में कोई दिक्कत नहीं हुयी। उनके द्वारा काॅफी को लाने के बाद, कर्नाटक के अलावा तमिलनाडु व केरल में भी बड़े पैमाने पर काॅफी के बागान लगाये गये। भारत में उगायी जाने वाली काॅफी दुनिया भर में सबसे अच्छी गुणवत्ता की काॅफी मानी जाती है, उसका कारण यह है कि इसे छाया में उगाया जाता है।
     
 काॅफी शब्द, अरबी शब्द 'कावा' से बना है, जिसका अर्थ वायु होता है। सबसे पहले इथियोपिया के लोगों ने काॅफी के बारे में जाना था। ऐसा माना जाता है कि 9वीं सदी में इथियोपिया में रहने वाले काल्दी नाम के माली ने देखा कि उसकी बकरियाँ काॅफी खाकर अधिक ऊर्जावान रहती हैं। इसके बाद तो काॅफी इथियोपिया से होते हुए यमन में पहुँचा और फिर वहाँ से पूरी दुनिया में कॉफी का विस्तार हुआ। बहुत से लोगों ने तो काॅफी का इस्तेमाल रात भर जगने के लिए भी किया, क्योंकि उन्हें काॅफी पीने से नींद नहीं आती थी। वैसे आज भी काॅफी या चाय का इस्तेमाल रात को जगने के लिए किया जाता है। मोका यमन में 'ओमर' नाम के एक हकीम तो काॅफी का इस्तेमाल अपने मरीजों के लिए भी करते थे। 
        
         पहले भारत में काॅफी में शक्कर की जगह शहद का इस्तेमाल होता था। 17वीं और 18वीं सदी में अच्छी काॅफी की पहचान दूध के द्वारा की जाती थी और इस प्रकार की काॅफी को डिग्री काॅफी कहा जाता था। इसमें मिलाया गया दूध एकदम शुद्ध होता था और इस तरह का काॅफी पीना अमीर होने की पहचान माना जाता था।

     
  भारत में पहला काॅफी शाॅप, प्लासी की युद्ध के बाद कोलकाता में खोला गया। काॅफी की उत्पादकता व गुणवत्ता को बढ़ाने के उद्देश्य से भारत में पहला काॅफी रिसर्च सेंटर 1925 में चिक्कामगलुर जिले में बेलेहोनर के पास स्थापित किया गया। 1936 में भारतीय काॅफी हाऊस की पहली चेन की शुरूआत हुई और सबसे पहले इसे मुम्बई में खोला गया, फिर कोलकाता और केरल में भी इसके ब्रांचेस खोले गये। 1970 तक आते-आते भारत में काॅफी ने एक पूरा उद्योग खड़ा कर दिया था। काॅफी की इस जरूरत को महसूस करते हुए सन् 1942 में काॅफी बोर्ड की नींव रखी गयी। भारत का काॅफी बोर्ड, एक स्वायत्त निकाय है, जो वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय; भारत सरकार के अधीन कार्य करता है।
       आज भारत में करीब 1,71,000 काॅफी के बागान हैं; जहाँ नौ लाख एकड़ की जमीन पर काॅफी ऊगायी जाती है। भारतीय दुनिया का छठे नम्बर का काॅफी पैदा करने वाला देश है। यहाँ पर पूरी दुनिया की 4.5% काॅफी ऊगायी जाती है। साल 2015 में भारत ने 349,980,000 kg काॅफी बीन्स का उत्पादन किया था। तो भारत में काॅफी की जो यात्रा सात बीन्स से शुरू हुयी थी, उसने आज बढ़कर एक बड़े कारोबार का शक्ल ले लिया है। 

                                                                                                 ( फोटो - विकिपीडिया )
     

Saturday 23 September 2017

यथार्थ की तलाश : आँखों देखी

हमारे जीवन का सच क्या है? आखिर ऐसा क्या है जिस पर हम विश्वास कर लें। क्या हर वक्त, हर जगह विश्वास करना सही होता है? क्या हमें आँखें मूँद कर सब कुछ मान लेना चाहिए या फिर ढूँढनी चाहिए, वो वजह जिसके वजह से वो सच, सच बना है। ये तो सही बात है कि हम उस बात पर कैसे विश्वास करे लें, जो हमारी 'आँखों देखी' नहीं है। हमें बचपन से सिखाया गया है कि ये ऐसा है, ये वैसा है और ये तुम्हें मानना ही है, और मानना इसलिए नहीं है कि ये ऐसा है या फिर ऐसा होता होगा। बल्कि मानना इसलिए है कि लोग इसे ऐसा ही मानते आये हैं। भले ही उसका वास्तविक रूप वो हो ही न, जैसा उसे लोगों ने स्वीकार किया है। लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल भी नहीं है कि हम हर एक चीज पर ही सवाल करें। कुछ इसी तरह के सवालों के जवाब तलाशती है, रजत कपूर की फिल्म 'आँखों देखी'। 
    
 इस फिल्म के मुख्य किरदार बाऊजी, जिसको संजय मिश्रा ने बड़ी संजीदगी के साथ निभाया है; ऐसे ही सवालों के जवाब पाने के लिए अपने अंदर झाँकते हैं। वो अपने आप को महसूस करने की कोशिश करते हैं और खुद को और दुनिया को समझने की कोशिश करते हैं। लेकिन उनकी इस कोशिश को बाकी सब लोग पागलपन समझते हैं। कुछ उनकी नकल उतारते हैं, तो कुछ उन्हें चिढ़ाते हैं। लेकिन समझ कोई नहीं पाता है।
इस फिल्म का एक सीन बहुत ही अच्छा है; जब पंडित जी, बाऊजी को 'प्रसाद' देते हैं और बापूजी कहते हैं कि नहीं ये तो 'मिठाई' है। बाऊजी की ज़िन्दगी में सब कुछ एक ढर्रे पर नहीं चलता है, बल्कि वो तो अलग-अलग नाव में सवार होकर तैरते रहते हैं। यहाँ पर बाऊजी में उस इंसान की परछाई नजर आती है, जो यथार्थ से वाकिफ होना चाहता है, उसको जीना चाहता है। फिल्म के आखिरी सीन में बाऊजी इसी यथार्थ के पीछे भागते हुए नजर आते हैं और उस यथार्थ का अनुभव करते हैं। वो उड़ रहे होते हैं, उन्हें इसमें खुशी मिलती है। उनके ही शब्दों में उनकी इस खुशी को शब्दों में बयाँ करना मुश्किल है।
        
इस फिल्म में मध्यवर्गीय समाज को बहुत ही करीब से दिखाया गया है। संयुक्त परिवार की उलझनों से लेकर बाहरी समाज की सोच तक को तक को रजत कपूर ने बड़े अच्छे ढंग से पर्दे पर उतारा है। यहाँ यही है कि कहीं कोई विचार किसी पर थोपे जा रहे हैं, तो कहीं किसी के विचारों का महत्व ही नहीं है।
      
 संजय मिश्रा को हम बाकी की फिल्मों में एक काॅमेडियन के दौर पर ही देखते आये हैं। जैसे कि वो All the best में 'Dhondu just chill' बोल कर के हँसाते हैं। लेकिन इस फिल्म में उन्होंने बिल्कुल इसके विपरीत काम किया है और एक आम इंसान के किरदार को पूरी तरह से जीवंत किया है। उनका अभिनय कहीं भी बनावटी नहीं लगता। हमें ये तो मानना ही पड़ेगा कि संजय मिश्रा उन कलाकारों में से हैं, जो कि हर तरह का किरदार निभा सकता है। संजय मिश्रा के अलावा रजत कपूर ने भी अपने सशक्त अभिनय की छाप छोड़ी है।
           
गीतों की बात की जाये तो वरूण ग्रोवर को तो शब्दों से खेलने में महारथ हासिल है। यहाँ पर भी उन्होंने इसका प्रदर्शन किया है। सागर देसाई ने भी उनका भरपूर साथ दिया है, जिनकी बनायी संगीत वरूण ग्रोवर के गीतों पर बिल्कुल फिट बैठती है। इसका एक गानी 'लागी नयी धूप' तो दिल को छू जाता है।
       

Friday 22 September 2017

विज्ञान की समझ को आसान बनाते विज्ञान केंद्र

विज्ञान का संसार बहुत ही बड़ा है और ये विषय मानवीय सभ्यता के विकास के साथ-साथ कई रोचक तथ्यों को भी अपने आप में समेटे हुए है। जैसे कि इंद्रधनुष का बनना, सूर्य या चन्द्र ग्रहण का लगना और भी बहुत कुछ। वैसे तो हम अपने आस-पास हर वक्त विज्ञान से ही रुबरू रहते हैं, लेकिन विज्ञान द्वारा निर्धारित इन प्राकृतिक क्रियाओं को हर एक आम इंसान नहीं समझ पाता। विज्ञान की इसी समझ को आसान बनाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद् द्वारा देश भर में 49 विज्ञान केंद्रों की स्थापना की गई। ये विज्ञान केंद्र आम लोगों को भी सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित करता है और उसके मन में भी विज्ञान के प्रति रूचि पैदा करता है।
    
  नई दिल्ली में प्रगति मैदान के पास भैरों मार्ग पर स्थित 'राष्ट्रीय विज्ञान केंद्र' इन्हीं 49 विज्ञान केंद्रों में से एक है। विज्ञान से संबंधित प्राचीन काल की जानकारियों से लेकर 21वीं सदी के डिजिटल युग तक, हर कुछ देखने व सुनने को मिलेगा इस विज्ञान केंद्र में। यहाँ पर आप विज्ञान के प्रयोगों को खुद भी कर के देख सकते हैं, उपकरणों को छू सकते हैं और यहाँ आपको कोई कुछ नहीं बोलेगा। यहाँ आप ये देख सकते हैं कि कैसे पियानो को बिना छुए, बस हवा में हाथ घुमाने से ही पियानो बजने लगता है। दरअसल ये इंफ्रारेड किरणों के कारण होता है। वहाँ जाकर आप इन सब के पीछे छिपे संपूर्ण तथ्यों को भी जान सकते हैं।
        
 इस विज्ञान केंद्र में 'हमारी वैज्ञानिक और प्रोद्यौगिक धरोहर' नाम का एक सेक्शन है, जिसमें प्राचीन भारत के वैज्ञानिक विकास को दिखाया गया है। इस सेक्शन में अनेक भारतीय वैज्ञानिकों जैसे आर्यभट्ट, कणाद, नागार्जुन की उपलब्धियों को भी दर्शाया गया है। इसके अलावा शल्य चिकित्सा व सुश्रुत द्वारा बनाये गये उपकरणों के माॅडल भी यहाँ देखने को मिल जायेंगे। 


 इसके आगे 'मानव जीव विज्ञान' नाम का एक सेक्शन है, जहाँ हमारे शरीर से संबंधित अनेक जानकारियाँ दी गयी हैं। थोड़ा और आगे जाने पर प्रागैतिहासिक काल से भी जुड़ी चीजें देखने को मिलती हैं। 
       
       'सूचना का इतिहास' नामक एक सेक्शन में बहुत ही रोचक वस्तुएँ देखने को मिलती हैं। ये सेक्शन उन युवाओं को काफी मजेदार लगेगा, जो 20वीं सदी के अंत में पैदा हुए। क्योंकि पुराने जमाने कि बहुत सी ऐसी वस्तुएँ यहाँ रखी हुयी हैं, जो कि हमें उसी समय में लेकर चली जाती हैं। जैसे कि पहले के तार घर, लाईट हाउस, रेलवे स्टेशन के पुराने माॅडल, पुराने कैमरे, पुराने वाद्य यंत्र और भी बहुत कुछ। इस सेक्शन के आगे बढ़ने पर हम 'डिजिटल क्रांति' नाम के एक सेक्शन में प्रवेश करते हैं और ये सेक्शन डिजिटल दुनिया के विकास को प्रदर्शित करता है। यहाँ पर पहले के वो कम्यूटर भी रखे हुए हैं, जो कि आकार में बहुत बड़े होते थे और उनकी स्पीड कम होती थी। साथ ही साथ आजकल के आधुनिक कम्प्यूटर व स्मार्टफोन भी मौजूद हैं। इस सेक्शन में डिजिल इलेक्ट्राॅनिक्स से संबंधित कई कंपोनेन्ट्स जैसे IC(Integrated Circuit), transistors  के बारे में भी बताया गया है।
  
   इस सेक्शन के नीचे आने पर हमें भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रमों के विकास की झलक देखने को मिलती है। इसके बाद का सेक्सन इतिहास व राजनीति से संबंधित है; जहाँ आॅडियो व विडियो के माध्यम से बहुत से नेताओं के भाषण, देश-दुनिया की तमाम जानकारियाँ देखने व सुनने को मिलती हैं।
      
 नई दिल्ली के अलावा कोलकाता, मुबंई, लखनऊ जैसे शहरों में भी इसी तरह के विज्ञान केंद्रों की स्थापना की गयी है। जहाँ पर विज्ञान को जानने व समझने के लिए मजेदार तरीकों का उपयोग किया गया है। लखनऊ के अलीगंज में स्थित 'आंचलिक विज्ञान नगरी' में आंतरिक प्रदर्शनी के अलावा बाहर खुले में भी विज्ञान के कई उपकरण रखे गये हैं, जो कि विज्ञान के नियमों को आसानी से समझाते हैं। यहाँ सबसे रोचक एक नल है जो कि हवा में लटका हुआ है और वहाँ से पानी लगातार गिरता ही रहता है। यहाँ आने वाले सभी पर्यटकों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण का केंद्र यही नल है। अब इसके पीछे माँजरा क्या है, ये तो वहाँ जा कर ही पता लगेगा। 
       
       तो जो लोग विज्ञान के इस रोचक संसार को करीब से जीना चाहते हैं, उसे जानना व समझना चाहते हैं, इतिहास को जीवित रूप में देखना चाहते हैं, ऐसे लोगों को इन विज्ञान केंद्रों के दर्शन जरूर करने चाहिए और अपनी सोच व समझ को विकसित करना चाहिए।

Saturday 9 September 2017

संस्कृत बोलता एक गांव....


हम सभी संस्कृत को एक भाषा के तौर पर जानते तो हैं, लेकिन उसका इस्तेमाल न के बराबर करते हैं। आज के समय में यदि कोई संस्कृत में बात करता दिख जाए, तो उसे एक अलग नजर से ही देखा जायेगा। लेकिन कर्नाटक के एक गाँव मत्तूर में लोग आज भी संस्कृत में ही बात करते हैं।
     

    संस्कृत पूरे विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है। प्राचीन भारत में मुख्य रूप से संस्कृत ही लिखी, पढ़ी व बोली जाती थी। वेद, ग्रंथ, पुराण व उपनिषद् ये सभी संस्कृत भाषा में ही लिखे गये। संस्कृत भाषा का प्रभाव विश्व की अन्य भाषाओं पर भी रहा है; जैसे कि अंग्रेजी का शब्द 'man', संस्कृत के शब्द 'मनु' से बना है। लेकिन समय के बदलने के साथ-साथ इस भाषा का महत्व कम होता चला गया और ये सिर्फ विद्यालयों व किताबों तक सिमट कर रह गयी। इन सब के बावजूद मत्तूर गाँव ने इस प्राचीन भाषा को आज भी ज़िन्दा रखा हुआ है। शिमोगा जिले में तुंगभद्रा नदी के किनारे बसे इस गाँव में हर एक इंसान संस्कृत बोलता नजर आ जायेगा। यहाँ पर संस्कृत बोलचाल की भाषा है; ठीक उसी तरह जैसे हिन्दी, भोजपुरी, गुजराती, बंगाली व अन्य भाषायें हैं।
       
     ऐसा माना जाता है कि मत्तुर भारत का आखिरी ऐसा गाँव है, जहाँ संस्कृत बोली जाती है। इस गाँव के सभी निवासी वैदिक जीवन व्यतीत करते हैं अर्थात् वो संस्कृत के ग्रंथों का सदैव पाठ करते हैं। यहाँ पर संस्कृत बोलने वाला शख्स कहीं भी और कभी भी देखा जा सकता है। दुकानदार और पंडित से लेकर छोटे बच्चे तक धड़ाधड़ संस्कृत बोलते हैं। और तो और, यहाँ पर तो कई लोग मोबाईल पर भी संस्कृत में बात करते दिख जायेंगे।
    संस्कृत बोलने की वजह से यह गाँव बाहरी लोगों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। बहुत से लोग दूसरे शहरों से यहाँ संस्कृत सीखने आते हैं। मत्तूर के एक आचार्य के अनुसार, अब तो वे विदेशी लोगों को भी संस्कृत की शिक्षा दे रहे हैं; जो लोग इस गाँव में नहीं आ पाते, उन्हें 'skype'  पर शिक्षा दी जाती है। ये इस बात का प्रमाण है कि मत्तूर के निवासियों ने वैदिक परंपरा को तो बनाये ही रखा है, साथ में वो आजकल की technology से भी up-to-date हैं।
       शिक्षा के बाकी क्षेत्रों में भी मत्तूर पीछे नहीं है। यहाँ के लगभग हर परिवार में एक साॅफ्टवेयर इंजीनियर है और भी बहुत से छात्र मेडिकल, कला व विज्ञान के क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। इसके अलावा इस गाँव के कुछ व्यक्ति संस्कृत के प्रोफेसर के तौर पर भी विश्वविद्यालयों में कार्यरत हैं।
       
                                                                                                   ( फोटो- विकिपीडिया )

Wednesday 6 September 2017

देशभक्ति के अर्थ को नये ढंग से परिभाषित करती फिल्म - रंग दे बसंती



हम सभी का इस देश के नागरिक होने के नाते, क्या कोई फर्ज नहीं बनता कि हम अपनी जिम्मेदारियों को अच्छी तरह से समझें व उनका पालन करें। क्या हम यूँ ही भागते रहेंगे, अपनी उन जिम्मेदारीयों से, जो हमारी इस देश के प्रति बनती हैं। आखिर दूसरों की गलतियों पर हम कब तक पर्दा डालते रहेंगे, कब तक बर्दाश्त करेंगे। ये बर्दाशत की हद कभी ना कभी तो पार होगी ही। 
         राकेश ओमप्रकाश मेहरा द्वारा निर्देशित फिल्म 'रंग दे बसन्ती' में यही दिखाया गया है। पहले तो इस फिल्म के कुछ किरदार देश के लिए अपनी जिम्मेदारियों से दूर भागते दिखायी पड़ते हैं और इस देश के सिस्टम को कभी न सुधरने वाला समझते हैं। लेकिन जब क्रांति से संबंधित वे एक डाॅक्यूमेंट्री कर रहे होते हैं, तो उनमें एक भावना उभर कर आती है। जो उन्हें उनकी जिम्मेदारियों का अहसास कराती है। इसी दौरान उनका दोस्त जो कि एयर फोर्स में पायलट है, शहीद हो जाता है; जिसका कारण भ्रष्ट सरकारी सिस्टम है। तो वे उस सरकारी सिस्टम से लड़ने की सोचते हैं। लेकिन वो वहाँ कामयाब नहीं होते। फिर वो उस मंत्री को मार देते हैं, जो इस घटना के लिए जिम्मेदार है। लेकिन यहाँ भी बात नहीं बनती। उसके उलट भ्रष्ट मंत्री को महान बता दिया जाता है। अंत में वे सभी ये फैसला करते हैं कि वे पूरे देश को बता देंगे कि मंत्री को उन्होंने ही मारा है और वे रेडियो के जरिये ऐसा ही करते हैं। वे ये भी बतातें हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। लेकिन सरकार को तो बस मंत्री के हत्यारों से मतलब होता है। वो रेडियो स्टेशन पर फोर्स भेज देती है और समर्पण करने के बावजूद सब के सब मारे जाते हैं। ये जानने के बाद पूरे देश के युवाओं में एक उबाल आ जाता है, उसे वे एक नयी क्रांति की शुरूआत बताते हैं और इसमें एक किरदार 'डीजे' के दादाजी कहते हैं- " साहब जी साडा बच्चा दी कुर्बानी कबूल करें। " आखिर उन्होंने कुर्बानी ही तो दी है, इस देश के भ्रष्ट सिस्टम के खिलाफ। ठीक उसी प्रकार जैसे पहले क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के अत्याचारों के खिलाफ कुर्बानी दी थी।
          इस फिल्म में निर्देशक ने बड़ी अच्छी तरह से ये दिखाने की कोशिश की है कि यदि युवाओं में कुछ कर गुजरने का जज्बा आ जाये, तो वे उसे कर के ही दम लेते हैं और तब देशभक्ति की एक नयी मिशाल पेश होती है। इस फिल्म में सरकारी सिस्टम पर भी एक तंज कसा गया है, जो कि उन पाँचों युवाओं के निर्दोष होने के बावजूद भी, उन्हें नहीं बख्शती।
         स्टोरी व निर्देशन के अलावा इस फिल्म के लिखे गए गीत व संगीत कमाल के हैं। चाहे वो देश को समर्पित टाइटल ट्रैक 'रंग दे बसंती' हो या फिर माँ और बेटे के बिछुड़ने के दर्द को बयाँ करता हुआ 'लुका छिपी' गाना। हर गाने में प्रसून जोशी ने अपने शब्दों से व ए आर रहमान ने अपने धुनों से मन मोह लिया है। रही बात अदाकारी की, तो आमिर खान से लेकर वहीदा रहमान तक ने एक-एक सीन को बिल्कुल अच्छे से पकड़ा है। इसमें ऐलिस पैटन द्वारा निभाया गया, सू का किरदार भी अपना एक प्रभाव छोड़ता है। लेकिन सबसे अलग अदाकारी भगत सिंह व करन का रोल करने वाले एक्टर सिद्धार्थ ने की है। जिस तरह से सिद्धार्थ ने अपने फेसियल एक्सप्रेसन्स से अपने किरदार को मजबूती दी है, वो वाकई देखने लायक है।
         कुल मिलाकर 'रंग दे बसन्ती' फिल्म बाॅलीवुड की बाकी कामर्शियल फिल्मों से बिल्कुल हटकर है। जैसा कि कई समीक्षकों ने लिखा है, ये फिल्म वाकई देशभक्ति की एक नयी परिभाषा को जन्म देता है। इस फिल्म में देशभक्ति भी है, काॅलेज की मस्ती भी है और कुछ जगहों पर प्यार की झलक भी देखने को मिल जाती है।
         
                                                                                                     ( फोटो - विकिपीडिया )

Friday 1 September 2017

तोशाखाना - सरकारी तोहफों का निवास स्थान

   हमारे प्रधानमंत्री मोदी जब भी किसी विदेशी दौरे पर जाते हैं, तो उन्हें अक्सर वहाँ की सरकार द्वारा कोई स्मृति चिन्ह या उपहार भेंट किया जाता है। लेकिन क्या ये सभी उपहार मोदी जी के स्वंय के होते हैं। नहीं, ऐसा नहीं है। जब भी कोई मंत्री, राजनयिक या कोई अन्य अधिकारी विदेशी दौरे पर जाते हैं और वहाँ यदि उन्हें कोई उपहार मिलता है, तो ये लोग इसे रखते नहीं हैं। बल्कि ये सारे उपहार विदेश मंत्रालय के तोशाखाना में जमा होते हैं। इस तोशाखाने में गुलदान, चटाई, कांच के बाॅक्स जैसी साधारण वस्तुओं से लेकर आइपैड, सोने की कढ़ाई वाले गाउन जैसी कई कीमती वस्तुएँ भी जमा हैं। 
         ऐसा नहीं है कि कोई मंत्री या अधिकारी इसे कभी अपने पास रख नहीं सकते। वे इन प्राप्त वस्तुओं की कीमत चुकाकर अपने साथ ले जा सकते हैं। विदेश मंत्रालय के जून 1978 के गजट के अनुसार इन प्राप्त तोहफों की कीमत का आकलन भारतीय बाजार की कीमतों के आधार पर किया जाता है और इन कीमतों का आकलन विदेश मंत्रालय ही करता है।
            जनवरी 2017 से लेकर मार्च 2017 तक अभी कुल 83 वस्तुएँ इस तोशाखाना में जमा हुयी हैं। जिसमें  आइफोन-7, वुलेन मफलर, कलाई घड़ी, सिल्वर कलर प्लेट, कालीन और ऐसी ही बहुत सी चीजें हैं। इसमें सबसे ज्यादा वस्तुएँ वाणिज्य एवं उद्योग राज्य मंत्री निर्मला सितारमन ने जमा की हैं। इनके द्वारा इस बीच जमा की गयी कुल वस्तुओं की संख्या 17 है। इन्होंने एक टी पाॅट सेट, शैम्पेन ग्लासेस, एक baby doll (cloth), तीन wooden doll, एक पेन ड्राईव, एक पेंटिंग जैसी वस्तुएँ जमा कर के तोशाखाने की शोभा बढ़ाई है।
            इस दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इसे तोशाखाने में एक Mont blanc ball point pen, एक मूर्ति (Argillite Carving), एक Malachite Stone वाला फूलों का हार जैसी वस्तुएँ जमा की हैं। जबकि विदेश मंत्री सुषमा स्वाराज ने इस तोशाखाने में एक कैंडल स्टैंड, एक काॅफी सेट, एक गणेश जी की मूर्ति व एक टी सेट जमा किया है।

Wednesday 9 August 2017

तारा पान सेंटर - पांच हजारी पान की दुकान

भारत में पान खाने का एक अलग ही क्रेज है और इसके शौकीन देश के हर हिस्से में मौजूद हैं। बहुतों के लिए यह माउथ फ्रेशनर के तौर पर खाया जाता है, तो बहुतों के लिए यह नशा भी है।
       
      अमूमन हमारी नजर में पान की कीमत दस, बीस रूपये या फिर अधिकतम पचास या सौ रूपये हो सकती है। लेकिन औरंगाबाद के तारा पान सेंटर में एक ऐसा पान मिलता है, जिसकी कीमत 5000 रूपये है और इस पान का नाम है 'कोहिनूर पान' ।
            
        ये कोहिनूर पान जोड़ों में बेचे जाते हैं और ये दो तरह के होते हैं। एक पुरूषों के लिए, दूसरा महिलाओं के लिए। अब ऐसा क्या है इस पान में जो इसे इतना महँगा बनाता है, तो हम आपको बताते हैं कि वो कौन-कौन सी चीजें हैं, जो इस कोहिनूर पान को पाँच हजारी बनाती हैं। पुरूषों वाले पान में ₹ 70 लाख प्रति किलोग्राम वाली कस्तूरी, ₹ 2 लाख प्रति किलोग्राम वाला केसर, ₹ 80,000 प्रति किलोग्राम वाला गुलाब, और ₹ 7 लाख प्रति किलोग्राम वाला 'अगर' नाम का एक लिक्विड फ्रेगरेंस, जो कि सिर्फ पश्चिम बंगाल में मिलता है, इस कोहिनूर पान में पड़ता है। इन सब के अलावा इसमें एक सीक्रेट इंग्रेडीयेंट्स भी पड़ता है, जिसका राज इस पान सेन्टर के मालिक मुहम्मद सैफुद्दीन सिद्दीकी ने छुपा कर के रखा है। वहीं जो पान महिलाओं के लिए होता है, उसमें गुलाब, सफेद मुसली जिसकी कीमत करीब ₹ 6000 प्रति किलोग्राम है और केसर डाला जिसकी मात्रा थोड़ी कम होती है। सैफुद्दीन साहब के अनुसार इस पान का प्रभाव दो दिनों तक बना रहता है।
       
         इस दुकान से लोग पान पैक करा कर भी ले जाते है और यहाँ पर इसे बड़े ही अच्छे तरीके से रंगीन डिब्बे में पैक कर के दिया जाता है और वो भी इत्र की बोतल के साथ में। ये देखने में बिल्कुल ऐसा लगता है, जैसे कि कोई गिफ्ट पैक किया गया हो। औरंगाबाद का यह मशहूर पान सेंटर करीब तीन दशकों से है और इस दुकान का पान भारत के बाहर दूसरे देशों जैसे, कुवैत, सऊदी अरब व दुबई में भी भेजा जाता है।

       ऐसा नहीं है कि यहाँ पर सिर्फ कोहिनूर पान ही मिलता है, यदि ऐसा होता तो यहाँ पर सिर्फ रईस लोग ही पान खाने आते। लेकिन यहाँ पर छोटे-बड़े हर लोग आते हैं और इस दुकान में हर वक्त भीड़ लगी रहती है। यहाँ मिलने वाली पान की रेंज पाँच रूपये से शुरू होकर पाँच हजार तक है। कोहिनूर पान के अलावा यहाँ पर राजा-रानी मसाला पान, हनीमून मसाला पान भी काफी मशहूर है।

                                                                                                                               ( PHOTO - TABLEHOPPER )

Friday 14 July 2017

इनरलाइन पास : जिन्दगी से रूबरू कराती एक यात्रा

कैसा लगे जब हम एक जगह पर बैठकर, एक ही काम करते हुए अपनी पूरी ज़िन्दगी बिता दें। यह कुछ लोगों के लिए बहुत बुरी बात होगी, लेकिन आजकल बहुत से लोग ऐसी ही ज़िन्दगी चुन रहे हैं। सुबह उठना, आॅफिस जाना, आॅफिस से घर आना, खान, पीना व सो जाना। फिर सुबह उठना और वही सुबकुछ। यही लाईफ आज हर किसी की है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो इन बनी बनायी धाराओं पर नहीं चलते। वे अपने मुकाम खुद चुनते हैं, व रास्ते भी खुद ही बनाते हैं। उमेश पंत भी उन्हीं में से एक हैं। आज मैंने उनकी लिखी किताब "इनरलाइन पास" पढ़कर खत्म कर ली। इसे पढ़कर ज़िन्दगी का सही मतलब समझ में आया व ज़िन्दगी व मौत को करीब से जानने का मौका भी मिला। सच में मैं इसे पढ़ते वक्त उस दुनिया में चला गया था, जहाँ पर मैं हमेशा से जाना चाहता था। यह किताब सिर्फ एक यात्रावृतांत भर नहीं है। इसमें तो इतिहास भी है, लोगों की मेहनत है और सबसे ज्यादा इंसानियत और आदर व सत्कार की भावना है, जो आज हमें कभी मेट्रो सिटीज में देखने को नहीं मिलती।

         किताब के शुरूआती पन्नों में उमेश पंत ने एक अनंत यात्रा की बात की है, जो कि बिना कहीं घुमे-फिरे, बिना कुछ नया देखे, पुराने ढर्रे पर खत्म हो जाती है। इसमें लेखक ने एक और बात कही है कि हम जिन उत्पादों की निर्माण प्रकिया का हिस्सा होते हैं, वो उत्पाद घुमा फिरा कर हमें ही बेच दिया जाता है। बहुत से लोग ये सच जानते हुए भी इससे बचकर निकल नहीं पाते है व अपने आप को मजबूर समझकर बँधे रहते हैं। इस किताब में लेखक इसी बंधन को तोड़कर अपनी दुनिया में निकल जाता है। दिल्ली से लेकर कैलाश मानसरोवर तक की इस यात्रा को पढ़ते वक्त हर समय मन रोमांचित हो उठता है व आँखों के सामने विहंगम दृश्य अपने आप बनते चले जाते हैं। मानों कि लेखक की नजर से ये यात्रा आप खुद कर रहे हों। इस किताब में किसी इंसान का दर्द, तो किसी की खुशी, किसी का डर, तो किसी की मजबूरी सबकुछ मिलेगा। एक जगह लेखक ने लिखा भी है, "ज़िन्दगी एक ही परिस्थिति को हमलोगों में किस तरह से बाँट देती है ! जो हमारा शौक था, वो उनकी मजबूरी थी।"

       लेखक ने इसमें एक खास अनुभव को भी शामिल किया है कि कैसे उन्होंने और उनके दोस्त ने एक पूरी रात ऐसे जंगल में गुजारी, जहाँ लगातार बारिश हो रही थी व ठंड ऐसी की शरीर को गला कर रख दे। ऊपर से चौबीस घंटों से बिना कुछ खाये पीये। ऐसे विषम परिस्थितियों में दोनों ने अपना हौसला बनाये रखा व मौत को शिकस्त दी। वास्तव में उनकी ये रात डराने के साथ-साथ उन्हें कुछ सिखाकर भी गयी।
       एक जगह लेखक ने बहुत अच्छा लिखा है कि पैसा हासिल करने के लिए नौकरी नहीं, बल्कि अनुभव हासिल करने के लिए यात्रायें अगर जीवन का सच बन जाती, तो ज़िन्दगी कितनी हसीन होती ! पर अफसोस ये बात हम सभी के जीवन की सच्चाई नहीं हैं। 

Sunday 5 March 2017

खगोलविज्ञान व गणित के महान पंडित : आर्यभट्ट




हमारे देश भारत में कई महान वैज्ञानिकों ने जन्म लिया है। इन्हीं महान वैज्ञानिकों में से एक नाम आर्यभट्ट का भी है। मूलत: हम सब इन्हें शून्य की खोज के लिये जानते हैं। शून्य की खोज के अलावा आर्यभट्ट ने खगोलविज्ञान और गणित के कई सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था। जिसकी वजह से वे विश्व के महानतम वैज्ञानिकों में से एक बन गये। बहुत से लोगों का यह मानना है कि सूर्य व पृथ्वी के बीच सही संबंधों को बतलाने वाला पहला व्यक्ति निकोलस कापरनिकस था। लेकिन आर्यभट्ट ने निकोलस कापरनिकस के जन्म के कई वर्ष पूर्व ही सूर्य व पृथ्वी के इन संबंधों को दुनिया के सामने रखा। इसके अलावा इन्होंने यह भी बतलाया कि चन्द्रमा और पृथ्वी जैसे दूसरे ग्रह अपने स्वयं के  प्रकाश से नहीं बल्कि सूर्य के प्रकाश से चमकते हैं। हिन्दू धर्म के सूर्य व चन्द्र ग्रहण की पुरानी मान्यताओं को भी आर्यभट्ट ने गलत सिद्ध किया।
             आर्यभट्ट का जन्म 476 में कुसुमपुर में हुआ था। जो कि आज के समय के पटना के रूप में जाना जाता है। हालांकि उनके जन्म स्थान को लेकर विवाद भी रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि आर्यभट्ट का जन्म अश्मक (महाराष्ट्र) में हुआ था और वे कुसुमपुर शिक्षा ग्रहण करने के लिये आये थे। जबकि कुछ लोग कुसुमपुर को ही उनका जन्म स्थान मानते हैं। आर्यभट्ट ने खगोलविज्ञान व गणित से संबंधित कई ग्रंथों की रचना की। जैसे - आर्यभट्टीयम्, दशगीतिका, आर्यभट्ट सिद्धांत और तंत्र। उन्होंने इन सभी ग्रंथों की रचना काव्य के रूप में की थी।
   
          आर्यभट्ट द्वारा लिखे गये ग्रंथों में से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ आर्यभट्टीयम् है। इस ग्रंथ में खगोलशास्त्र, अंकगणित, बीजगणित और त्रिकोणमिति के कई नियम दिये गये हैं। आर्यभट्टीयम् को कभी-कभी आर्य-शत-अष्ट के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस ग्रंथ के पाठों में छंदो की संख्या 108 है। इस ग्रंथ में वर्गमूल  (square root), घनमूल  (cube root), समानान्तर श्रेणी ( Arithmetic Progression ) के साथ-साथ सतत भिन्न (Continued Function), द्विघात समीकरण (Quadratic Equation), Table of sines, घात श्रंखला के योग (Sums of power series) तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन मिलता है। इस पूरे ग्रंथ में 108 छंद है तथा इसे चार अध्यायों में विभाजित किया गया है। ये चार अध्याय गीतिकपाद, गणितपाद, कालक्रियापाद व गोलापद है। इन चारों अध्यायों में कल्प, युग, ज्यामितिक प्रगति, ग्रहों की स्थिति निर्धारण करने की विधि, पृथ्वी के आकार, दिन और रात के कारण जैसी अनेकों महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी गयी हैं। इस ग्रंथ की एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि ये ग्रंथ आज के आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है।
           आर्यभट्ट के द्वारा लिखा हुआ एक और ग्रंथ आर्यभट्ट सिद्धांत है। यह ग्रंथ खगोलीय गणनाओं के विषय में है। इस ग्रंथ का सातवें शतक में व्यापक उपयोग होता था, लेकिन अब यह ग्रंथ बिल्कुल लुप्त हो चुका है और इस समय इस ग्रंथ के केवल 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं। आज इसके बारे में हमें जो कुछ भी जानकारी मिल पायी है, वह आर्यभट्ट के समकालीन रह चुके वराहमिहीर के लेखनों से या फिर उनके बाद के गणितज्ञों जैसे ब्रह्मगुप्त और भाष्कर प्रथम के कार्यों से ही मिल पायी है। इनके लेखनों से हमें यह पता चलता है कि इसमें पुराने सूर्य सिद्धांतों पर आधारित कार्यों का वर्णन है। इस लुप्त हुए ग्रंथ में अनेक खगोलीय उपकरणों के शामिल होने की भी जानकारी मिलती है। जैसे कि यस्ती यन्त्र (बेलनाकार छड़ी), शंकु यन्त्र, छाया यन्त्र, धनुर यन्त्र, एक छत्र आकार का उपकरण जिसे छत्र यन्त्र कहा जाता है। इसमें धनुषाकार व बेलनाकार जल घड़ियों का भी उल्लेख मिलता है।
            अरबी भाषा में लिखा गया एक ग्रंथ अल नत्फ को आर्यभट्ट के ही किसी ग्रंथ का अनुवाद माना जाता है। परन्तु इसका संस्कृत नाम अभी तक अज्ञात है। शायद नौवीं सदी के अभिलेखन में यह फारसी विद्वान व भारतीय इतिहासकार अबू रेहान अल बिरूनी द्वारा उल्लेखित किया गया है।
        नालंदा विश्वविद्यालय से तो हम सभी परिचित हैं। ये उस समय अपनी शिक्षण व्यवस्था के लिये पूरे विश्व में विख्यात था। मगध स्थित इस विश्वविद्याल में सुदुर देश-विदेश के विद्यार्थी यहाँ शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते थे। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार ऐसा माना जाता है कि आर्यभट्ट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके थे।
    आर्यभट्ट ने उस समय बिना किसी आधुनिक उपकरणों की सहायता से पृथ्वी की परिधि का मान बिल्कुल सही-सही बताया। जिसमें आज के समय के अनुसार सिर्फ 65 मील की ही अशुद्धि है। उन्होंने पृथ्वी के घूमने के हिसाब से समय को विभाजित किया। इन्होंने सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग व कलयुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग और एक महायुग में चार युग सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग व कलयुग होते हैं। आर्यभट्ट ने पाई (pi) के सन्निकट मान पर भी कार्य किया। आर्यभट्टीयम् के दूसरे भाग में उन्होंने किसी वृत्त की परिधि और व्यास का अनुपात ज्ञात किया है और उन्होंने इसका मान 3.1416 बतलाया है। जो कि पाई के आज के ज्ञात मान से बिल्कुल मिलता है।
          आर्यभट्ट द्वारा किये गये कार्यों ने कई पड़ोसी संस्कृतियों को भी प्रभावित किया। इस्लामी स्वर्ण युग (820 ई•) के दौरान उनके ग्रंथों का अरबी अनुवाद किया गया। आर्यभट्ट की खगोलीय गणना की विधियाँ भी बहुत ही प्रभावशाली थी। उनके द्वारा बनायी गयी त्रिकोणमिति तालिकाओं का प्रयोग इस्लाम में अरबी खगोलीय तालिकाओं जिन्हें जिज के नाम से जाना जाता है की गणना के लिए इस्तेमाल किया जाता था। हम कह सकते हैं कि आर्यभट्ट ने पूरी दुनिया को ब्रह्माण्ड के गूढ़ रहस्यों को समझने के लिये एक दिशा दे दी। उनके द्वारा बनाये गये नियमों को कई संस्कृतियों ने अपनाया। उनके इन उत्कृष्ट कार्यों को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। लेकिन फिर भी आज हम उनके कुछ ग्रंथों को बचा नहीं पाये हैं।
         आर्यभट्ट के सम्मान में ही भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा गया। खगोल विज्ञान और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिये भारत में नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान उन्हीं के नाम पर रखा गया है। बैसिलस आर्यभट्ट यह इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा खोजी गयी बैक्टीरिया की एक प्रजाति का नाम है जो कि आर्यभट्ट के नाम पर ही रखा गया है।

                                                                                                ( फोटो -  विकिपीडिया )

Thursday 12 January 2017

शिक्षा - ज्ञान का माध्यम या जीवन-यापन की जरूरत

आज के इस वर्तमान समय में शिक्षा के मायने ही बदल गये हैं। लोग तो बस यही सोचते हैं कि वो पढ़-लिख लें, ताकि एक अच्छी सी नौकरी मिल जाये और जिन्दगी की नईया को काटने में कोई तकलीफ व परेशानी न हो। पहले शिक्षा जहाँ ज्ञान प्राप्ति का साधन था, वहीं आज ये नौकरी पाने का एक जरिया भर बन कर रह गया है। आजकल बहुत से लोग इसलिए शिक्षित, नहीं होना चाहते क्योंकि उनकी किसी विशेष विषय में रूचि है या वे उसके बारे में जानना चाहते हैं, बल्कि वो तो बस इसलिए शिक्षित होते हैं क्योंकि वे अपने भविष्य को सुरक्षित रखना चाहते हैं। भले ही उनकी अपने पढ़े हुए विषय के बारे में जानकारी न के बराबर हो। ऐसे लोगों के लिए ज्ञान से ज्यादा डिग्री का महत्व होता है। वो तो बस अच्छी से अच्छी डिग्री को हासिल करने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। चाहे इसके लिए  उनको कितने भी रूपये क्यों न देने पड़े हों। अभिवावकों की स्थिति भी यही है, वो भी अपने बच्चों का एडमिशन पैसे-रूपये देकर किसी बड़े काॅलेज में करा देते हैं और सोचते हैं कि एडमिशन होने के बाद तो नौकरी मिल ही जायेगी। नहीं मिली तो फिर रूपये कब काम आयेंगे।
        भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए नौकरी भी जरूरी है, लेकिन शिक्षा का इस कदर मजाक क्यों। क्यों लोग आजकल इसका सिर्फ इस्तेमाल कर रहे हैं ? सिर्फ डिग्रियों को महत्व देने वाले ऐसे लोग जब किसी जगह पर काम करने के लिए जाते हैं, तो वहाँ कि गुणवत्ता को तो प्रभावित करते ही हैं, साथ में अपने आस-पास के वातावरण को भी दूषित करते हैं। यदि ऐसे लोग अध्यापन के क्षेत्र में चले गये, फिर तो पूछना ही नहीं है। सरकारी प्राइमरी व माध्यमिक विद्यालयों का हाल तो हम सबको पता ही है। यहाँ पर शिक्षक पढ़ाने के उद्देश्य से कभी नहीं आते हैं। वे तो बस यहाँ पर आकर किसी भी तरह समय काटते हैं। फिर भी सरकार इन पर करोड़ों रूपये फूँक रही है व इनको तमाम सुविधायें उपलब्ध करा रही है। ऐसे ही लोगों कि वजह से हमारे देश में शिक्षा का स्तर दिनों पर दिन गिरता जा रहा है।
  
        हमारे देश में हर साल हजारों की संख्या में इंजीनियरिंग के स्टूडेंट्स ग्रेजुएट होते हैं, लेकिन इनमें से कितने ऐसे हैं, जिनकी वास्तव में इस क्षेत्र में रूचि होती है। यदि देखा जाए तो यह संख्या बहुत ही कम है। वे इसे या तो इसलिए पढ़ रहे होते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इस कोर्स को पूरा करने के बाद उन्हें एक अच्छी नौकरी मिल जायेगी या यदि वे जानते भी हैं कि उनकी इस क्षेत्र में रूचि नहीं है, फिर भी अभिवावक के दबाव में आकर उन्हें ऐसा करना पड़ता है। परिणाम यह होता है कि कोर्स को पूरा कर लेने के बाद भी वे बेरोजगार होते हैं। यदि ऐसे लोग शिक्षा को नौकरी पाने का जरिया न मानकर ज्ञान प्राप्ति का साधन मानें व उसी क्षेत्र में अपना करियर बनाये, जिनमें उनकी रूचि हो तो कितना अच्छा है। बहुत से लोग पुराने परंपरागत कोर्सों जैसे इंजीनियरिंग, डाॅक्टरी को ही सही मानते है और सोचते हैं कि इसी से भविष्य सुरक्षित रह सकता है। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। संगीत, नृत्य, कला जैसे अलग क्षेत्र भी शिक्षा के ही एक भाग हैं। ऐसा नहीं है कि जिसने B.Tech, MBBS, LLB, PHD किया हो वही शिक्षित हो। अपने क्षेत्र में कुशल होना ही वास्तविक शिक्षा है। चाहे व सामाजिक क्षेत्र हो या फिर कुछ और।
       
     मैंने बहुतों को तो यह कहते भी सुना है कि   जिन्दगी भर पढ़ते व सीखते ही रहोगे क्या। वे यह नहीं जानते कि जीवन पर्यन्त पढ़ते व सीखते रहने से हमारे अपने ही ज्ञान में वृद्धि होगी। सोचिये जरा यदि नौकरी मिल जाने के बाद हम पढ़ना, लिखना और कुछ सीखना छोड़ दें, और जिन्दगी काटते-काटते एक दिन इस दुनिया को अलविदा कह दें तो इसका कोई फायदा है। इससे अच्छा है कि हम रोज कुछ न कुछ पढ़ते व सीखते रहें व इस दुनिया को एक नये नजरिये से देखें व समझें।