Wednesday 6 September 2017

देशभक्ति के अर्थ को नये ढंग से परिभाषित करती फिल्म - रंग दे बसंती



हम सभी का इस देश के नागरिक होने के नाते, क्या कोई फर्ज नहीं बनता कि हम अपनी जिम्मेदारियों को अच्छी तरह से समझें व उनका पालन करें। क्या हम यूँ ही भागते रहेंगे, अपनी उन जिम्मेदारीयों से, जो हमारी इस देश के प्रति बनती हैं। आखिर दूसरों की गलतियों पर हम कब तक पर्दा डालते रहेंगे, कब तक बर्दाश्त करेंगे। ये बर्दाशत की हद कभी ना कभी तो पार होगी ही। 
         राकेश ओमप्रकाश मेहरा द्वारा निर्देशित फिल्म 'रंग दे बसन्ती' में यही दिखाया गया है। पहले तो इस फिल्म के कुछ किरदार देश के लिए अपनी जिम्मेदारियों से दूर भागते दिखायी पड़ते हैं और इस देश के सिस्टम को कभी न सुधरने वाला समझते हैं। लेकिन जब क्रांति से संबंधित वे एक डाॅक्यूमेंट्री कर रहे होते हैं, तो उनमें एक भावना उभर कर आती है। जो उन्हें उनकी जिम्मेदारियों का अहसास कराती है। इसी दौरान उनका दोस्त जो कि एयर फोर्स में पायलट है, शहीद हो जाता है; जिसका कारण भ्रष्ट सरकारी सिस्टम है। तो वे उस सरकारी सिस्टम से लड़ने की सोचते हैं। लेकिन वो वहाँ कामयाब नहीं होते। फिर वो उस मंत्री को मार देते हैं, जो इस घटना के लिए जिम्मेदार है। लेकिन यहाँ भी बात नहीं बनती। उसके उलट भ्रष्ट मंत्री को महान बता दिया जाता है। अंत में वे सभी ये फैसला करते हैं कि वे पूरे देश को बता देंगे कि मंत्री को उन्होंने ही मारा है और वे रेडियो के जरिये ऐसा ही करते हैं। वे ये भी बतातें हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। लेकिन सरकार को तो बस मंत्री के हत्यारों से मतलब होता है। वो रेडियो स्टेशन पर फोर्स भेज देती है और समर्पण करने के बावजूद सब के सब मारे जाते हैं। ये जानने के बाद पूरे देश के युवाओं में एक उबाल आ जाता है, उसे वे एक नयी क्रांति की शुरूआत बताते हैं और इसमें एक किरदार 'डीजे' के दादाजी कहते हैं- " साहब जी साडा बच्चा दी कुर्बानी कबूल करें। " आखिर उन्होंने कुर्बानी ही तो दी है, इस देश के भ्रष्ट सिस्टम के खिलाफ। ठीक उसी प्रकार जैसे पहले क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के अत्याचारों के खिलाफ कुर्बानी दी थी।
          इस फिल्म में निर्देशक ने बड़ी अच्छी तरह से ये दिखाने की कोशिश की है कि यदि युवाओं में कुछ कर गुजरने का जज्बा आ जाये, तो वे उसे कर के ही दम लेते हैं और तब देशभक्ति की एक नयी मिशाल पेश होती है। इस फिल्म में सरकारी सिस्टम पर भी एक तंज कसा गया है, जो कि उन पाँचों युवाओं के निर्दोष होने के बावजूद भी, उन्हें नहीं बख्शती।
         स्टोरी व निर्देशन के अलावा इस फिल्म के लिखे गए गीत व संगीत कमाल के हैं। चाहे वो देश को समर्पित टाइटल ट्रैक 'रंग दे बसंती' हो या फिर माँ और बेटे के बिछुड़ने के दर्द को बयाँ करता हुआ 'लुका छिपी' गाना। हर गाने में प्रसून जोशी ने अपने शब्दों से व ए आर रहमान ने अपने धुनों से मन मोह लिया है। रही बात अदाकारी की, तो आमिर खान से लेकर वहीदा रहमान तक ने एक-एक सीन को बिल्कुल अच्छे से पकड़ा है। इसमें ऐलिस पैटन द्वारा निभाया गया, सू का किरदार भी अपना एक प्रभाव छोड़ता है। लेकिन सबसे अलग अदाकारी भगत सिंह व करन का रोल करने वाले एक्टर सिद्धार्थ ने की है। जिस तरह से सिद्धार्थ ने अपने फेसियल एक्सप्रेसन्स से अपने किरदार को मजबूती दी है, वो वाकई देखने लायक है।
         कुल मिलाकर 'रंग दे बसन्ती' फिल्म बाॅलीवुड की बाकी कामर्शियल फिल्मों से बिल्कुल हटकर है। जैसा कि कई समीक्षकों ने लिखा है, ये फिल्म वाकई देशभक्ति की एक नयी परिभाषा को जन्म देता है। इस फिल्म में देशभक्ति भी है, काॅलेज की मस्ती भी है और कुछ जगहों पर प्यार की झलक भी देखने को मिल जाती है।
         
                                                                                                     ( फोटो - विकिपीडिया )

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