हमारे जीवन का सच क्या है? आखिर ऐसा क्या है जिस पर हम विश्वास कर लें। क्या हर वक्त, हर जगह विश्वास करना सही होता है? क्या हमें आँखें मूँद कर सब कुछ मान लेना चाहिए या फिर ढूँढनी चाहिए, वो वजह जिसके वजह से वो सच, सच बना है। ये तो सही बात है कि हम उस बात पर कैसे विश्वास करे लें, जो हमारी 'आँखों देखी' नहीं है। हमें बचपन से सिखाया गया है कि ये ऐसा है, ये वैसा है और ये तुम्हें मानना ही है, और मानना इसलिए नहीं है कि ये ऐसा है या फिर ऐसा होता होगा। बल्कि मानना इसलिए है कि लोग इसे ऐसा ही मानते आये हैं। भले ही उसका वास्तविक रूप वो हो ही न, जैसा उसे लोगों ने स्वीकार किया है। लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल भी नहीं है कि हम हर एक चीज पर ही सवाल करें। कुछ इसी तरह के सवालों के जवाब तलाशती है, रजत कपूर की फिल्म 'आँखों देखी'।
इस फिल्म के मुख्य किरदार बाऊजी, जिसको संजय मिश्रा ने बड़ी संजीदगी के साथ निभाया है; ऐसे ही सवालों के जवाब पाने के लिए अपने अंदर झाँकते हैं। वो अपने आप को महसूस करने की कोशिश करते हैं और खुद को और दुनिया को समझने की कोशिश करते हैं। लेकिन उनकी इस कोशिश को बाकी सब लोग पागलपन समझते हैं। कुछ उनकी नकल उतारते हैं, तो कुछ उन्हें चिढ़ाते हैं। लेकिन समझ कोई नहीं पाता है।
इस फिल्म का एक सीन बहुत ही अच्छा है; जब पंडित जी, बाऊजी को 'प्रसाद' देते हैं और बापूजी कहते हैं कि नहीं ये तो 'मिठाई' है। बाऊजी की ज़िन्दगी में सब कुछ एक ढर्रे पर नहीं चलता है, बल्कि वो तो अलग-अलग नाव में सवार होकर तैरते रहते हैं। यहाँ पर बाऊजी में उस इंसान की परछाई नजर आती है, जो यथार्थ से वाकिफ होना चाहता है, उसको जीना चाहता है। फिल्म के आखिरी सीन में बाऊजी इसी यथार्थ के पीछे भागते हुए नजर आते हैं और उस यथार्थ का अनुभव करते हैं। वो उड़ रहे होते हैं, उन्हें इसमें खुशी मिलती है। उनके ही शब्दों में उनकी इस खुशी को शब्दों में बयाँ करना मुश्किल है।
इस फिल्म में मध्यवर्गीय समाज को बहुत ही करीब से दिखाया गया है। संयुक्त परिवार की उलझनों से लेकर बाहरी समाज की सोच तक को तक को रजत कपूर ने बड़े अच्छे ढंग से पर्दे पर उतारा है। यहाँ यही है कि कहीं कोई विचार किसी पर थोपे जा रहे हैं, तो कहीं किसी के विचारों का महत्व ही नहीं है।
संजय मिश्रा को हम बाकी की फिल्मों में एक काॅमेडियन के दौर पर ही देखते आये हैं। जैसे कि वो All the best में 'Dhondu just chill' बोल कर के हँसाते हैं। लेकिन इस फिल्म में उन्होंने बिल्कुल इसके विपरीत काम किया है और एक आम इंसान के किरदार को पूरी तरह से जीवंत किया है। उनका अभिनय कहीं भी बनावटी नहीं लगता। हमें ये तो मानना ही पड़ेगा कि संजय मिश्रा उन कलाकारों में से हैं, जो कि हर तरह का किरदार निभा सकता है। संजय मिश्रा के अलावा रजत कपूर ने भी अपने सशक्त अभिनय की छाप छोड़ी है।
गीतों की बात की जाये तो वरूण ग्रोवर को तो शब्दों से खेलने में महारथ हासिल है। यहाँ पर भी उन्होंने इसका प्रदर्शन किया है। सागर देसाई ने भी उनका भरपूर साथ दिया है, जिनकी बनायी संगीत वरूण ग्रोवर के गीतों पर बिल्कुल फिट बैठती है। इसका एक गानी 'लागी नयी धूप' तो दिल को छू जाता है।
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