Tuesday 24 October 2017

शिक्षा पद्धति में बदलाव की जरूरत

भारत की शिक्षा पद्धति में आखिर इतनी खामियाँ क्यों हैं ? यहाँ पर ज्ञान से ज्यादा डिग्री को इतनी तवज्जो क्यों दी जाती है ? ऐसे ही अनेक उभरते हुए प्रश्नों के पीछे कहीं ना कहीं हम स्वयं जिम्मेदार हैं। एक जमाना था, जब भारतीय शिक्षा प्रणाली की दुनिया भर में धाक थी। तक्षशिला, नालंदा जैसे विश्वविद्यालय विदेशी छात्रों को अपनी तरफ आकर्षित करते थे; ठीक उसी तरह जिस तरह आज आॅक्सफोर्ड और हार्वर्ड यूनिवर्सिटीज विश्व भर के छात्रों को अपनी ओर खींचती हैं। लेकिन आज का परिदृश्य बिल्कुल ही बदल गया है। एक तो विश्व रैकिंग के मामले में हमारे देश की संस्थायें स्थान नहीं बना पाती और दूसरी ओर बाहर से आये पढ़ने वाले छात्रों की संख्या हमारे यहाँ न के बराबर है। यदि शोध की बात की जाए, तो फिर पूछना ही नहीं है। कुछ संस्थानों को छोड़ दिया जाए; जैसे की IISc, IITs, तो बाकी के संस्थानों में न तो शोध के लिए जरूरी उपकरण उपलब्ध हैं और ना ही फैकल्टी की इसमें कोई रूचि दिखायी देती है। वो बस अपनी नौकरी करते हैं और तनख्वाह वसूलते हैं। वैसे ये लोग करें भी क्या, इनका ज्ञान जो इनके आड़े आ जाता है। जो इन्हें बताता है कि हमारे देश में शोध की जरूरत ही नहीं है। इसके लिए तो कुछ चुनिंदा संस्थान और विश्व के बाकी संस्थान तो हैं ही।
        
        इन शिक्षण संस्थानों को यदि हम रैंकिंग के नजरिये से ना भी देखें, तो भी हमारे यहाँ शिक्षा की गुणवत्ता बिल्कुल ही खराब है। यहाँ पर छात्र बस किसी भी तरह परीक्षा में पास होना चाहते हैं और वे ऐसा करने के लिए तथ्यों को समझने की बजाये रटते हैं। भले ही उनको उस विषय से सबंधित बातें समझ में आयीं हों या ना आयीं हों, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। अभिवावक व शिक्षकों की भी इसमें उतनी ही भागीदारी है, जितनी की छात्रों की। क्योंकि वे भी उन्हें परीक्षा में आये गये नम्बरों के आधार पर ही आँकते हैं। इस बात की संभावना है कि किसी परीक्षा में उच्च स्थान प्राप्त करने वाले छात्र की अपने विषय पर मजबूत पकड़ ना हो, लेकिन उसी परीक्षा में औसत या कम अंक लाने वाला छात्र, टाॅप करने वाले छात्र से बेहतर जानकारी रखता हो।
         सबसे बड़ी बात तो नौकरी की है। ये सही है कि भविष्य में जीवन निर्वाह के लिए हमारा आर्थिक रूप से सक्षम होना जरूरी है। लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं है कि सभी छात्रों का एकमात्र लक्ष्य, सिर्फ नौकरी पाना ही हो और वे शिक्षा इसीलिए ग्रहण करें, ताकि उन्हें एक अच्छी नौकरी मिल सके। बहुत से अभिवाक या छात्र, शिक्षा को नौकरी पाने का एक जरिया भर मानते हैं, जबकि ऐसा मानना पूर्ण रूप से गलत है। छात्रों को शुरू से ही ये बताया जाता है कि यदि वो मन लगाकर नहीं पढ़ेगे, तो आगे चलकर अच्छी नौकरी नहीं मिलने वाली, शादी नहीं होने वाली और घर नहीं बनने वाला। इन सब के चक्कर में शिक्षा का अर्थ ही बदलता जा रहा है। शिक्षा हम सभी का एक अधिकार है, और ये अधिकार सिर्फ इसलिए नहीं है कि हमें आगे चलकर लाईफ में सेटल होना है; बल्कि ये अधिकार इसलिए भी है, क्योंकि हम समाज व देश के विकास में भागीदार हो सकें। दुनिया को व लोगों को समझ सकें, नयी चीजों का आविष्कार कर सकें। जब तक अभिवावकों व छात्रों के मन में शिक्षा को लेकर विचार नहीं बदलेंगे, तब तक लोगों को शिक्षा का महत्व नहीं समझ में आने वाला है।

हमें यदि अपने देश की शिक्षण पद्धति में सुधार लाना है, तो बदलाव शुरूआती स्तर से करनी होगी। प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों की शिक्षण व्यवस्था को बदलना होगा। हमें Quantity( Marks) की जगह Quality( ज्ञान) पर जोर देना होगा। ऐसा नहीं है कि Quality Education पर ध्यान देने वाले विद्यालय हमारे देश में नहीं हैं। सोनम वांगचूक द्वारा स्थापित SECMOL जैसै संस्थानों का ध्यान पूरी तरह से Quality Education पर ही है और ऐसे संस्थान हमारे देश के बाकी विद्यालयों व विश्वविद्यालयों के लिए एक अच्छा उदाहरण साबित हो सकते हैं। बस जरूरत है तो हम सभी को अपने विचारों को बदलने की और यदि विचार बदले, तो देश जरूर बदलेगा।
  

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