Friday 15 December 2017

लोकतंत्र में जनता की विचारधारा और कर्तव्य

चुनावों के इस सीजन में जब भी कोई न्यूज चैनल खोलकर बैठो, तो अक्सर राजनेता आपस में लड़ते हुए ही दिखायी पड़ते हैं। कोई किसी की गलतियों को गिना रहा होता है, तो कोई अपने द्वारा किये गये महत्वपूर्ण कार्यों का उल्लेख कर रहा होता है। इन लोगों की कोशिश यही रहती है कि किसी भी तरह दूसरों को नीचा दिखायें व खुद को ऊँचा उठायें। कभी-कभी तो ये लड़ाईयाँ टीवी से निकलकर उन लोगों के बीच भी आ पहुँचती हैं, जो इन्हें देख रहे होते हैं। दर्शकों के बीच दो गुट बन जाता हैं। यहाँ पर जनता भी अपनी-अपनी पार्टियाँ चुनती है और अपनी पसंद की पार्टीयों का अच्छी तरह से प्रचार प्रसार करती है। इस तरह की स्थितियों में जनता 'सरकार चुनने वाला आम नागरिक' न बन कर, किसी पार्टी की कार्यकर्ता अधिक दिखायी पड़ती है। आजकल तो सोशल मीडिया इस तरह के प्रचार प्रसार का अच्छा माध्यम बन गया है और यहाँ पर अधिकतर प्रचार 'आम जनता-cum-आम कार्यकर्ता' के द्वारा ही किया जा रहा है।

सरकार द्वारा किये गये कार्यों की सराहना करना व पार्टीयों का प्रचार करना, दो अलग-अलग चीजें हैं। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि वर्तमान की सरकार ने जो निर्णय लिए हैं या फिर जो कार्य किया है, वो पिछली सरकार द्वारा किये गये कार्यों से बहुत ही बेहतर है। उनके द्वारा उठाये गये कदमों की हमें वाकई प्रशंसा करनी चाहिए। लेकिन इसका मतलब ये तो बिल्कुल भी नहीं है कि हम इनकी कमियों को नजरअंदाज कर दें। किसी भी देश में लोकतंत्र की सबसे मजबूत कड़ी वहाँ की जनता ही होती है। देश के नागरिकों का ये कर्तव्य बनता है कि वो सही और गलत में फर्क करे। यदि सरकार का किसी विषय पर ध्यान नहीं जा रहा, तो जनता को ये चाहिए कि वो उसे उस बारे में याद दिलाये। यदि सरकार द्वारा लिया गया कोई फैसला गलत है, तो वो उसका विरोध करे या फिर अपनी राय प्रकट करे। मगर आज ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।

आज से सालों पहले इंदिरा गाँधी की लहर थी। लोग उनके भाषणों से बहुत प्रभावित होते थे और उन्हें बहुत मानते थे। लेकिन उस समय के 1984 के दंगों को कौन भूल सकता है, जहाँ पर पूरे देश में सिखों को अपने सिख होने का दंश झेलना पड़ा था। कुछ ऐसा ही आज भी है; जहाँ पर यदि कोई सरकार की गलतियों को गिनाने भी लगता है, तो उसे या तो दूसरे पार्टी का समर्थक कहा जाता है, नहीं तो फिर धर्म को आड़े लाया जाता है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि ऐसा वही लोग कहते हैं, जो 'आम कार्यकर्ता' हैं। हमें ये तय करना होगा कि हमें कार्यकर्ता बनना है या फिर आम जनता। दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं। लेकिन दोनों जब साथ में आकर 'आम कार्यकर्ता' बन जाते हैं, तो ये हमारे देश व लोकतंत्र दोनों के लिए घातक साबित हो सकता है। जिस किसी को लगता है कि वो राजनीति में जाकर देश के विकास में अपना योगदान दे सकता है, तो उसे उस दिशा में जरूर आगे बढ़ना चाहिए। लेकिन आम जनता रहते हुए, किसी एक पार्टी का कार्यकर्ता बन जाना, उसका प्रचार करना व उसके विरूद्ध कुछ न सुनना, ये एक अच्छे लोकतंत्र की निशानी नहीं है।

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