Sunday 24 September 2017

भारत में काॅफी का विकास

सुबह उठने के बाद हम सभी को चाय या काॅफी का इंतजार रहता ही है। हममें से बहुत लोगों को यदि सुबह-सुबह ये पेय न मिले, तो दिमाग फ्रेश नहीं होता। जो लोग रात भर काम करते हैं, उनके लिए भी काॅफी किसी वरदान से कम नहीं है। यहाँ पर लोग बरिस्ता जैसे हाई क्वालिटी के कैफे में भी काॅफी पीते हैं और घर पर एक रूपये के पैकेट वाली कॉफी भी बनाते हैं। भारत में काॅफी मुख्य पेय पदार्थों में से एक है। लेकिन 17वीं सदी के पहले भारत में काॅफी का नामोंनिशान तक मौजूद नहीं था। भारत में काॅफी लाने का श्रेय एक सूफी संत बाबा बूदान को जाता है। बाबा बूदान जब हज करके भारत वापस आ रहे थे, तो उन्होंने मोका यमन के पोर्ट से सात काॅफी बीन्स लिए और उसे लेकर भारत आ गये। इन काॅफी बीन्स को कर्नाटक के चिक्कामगलुर जिले में चंद्रगिरी की पहाड़ियों पर उगाया गया और आजकल इसे बाबा बुदान गिरी या बाबा बुदान फाॅरेस्ट के नाम से जाना जाता है। 
       
        बाबा बुदान ने 17वीं सदी में सात काॅफी बीन्स लाकर एक नयी शुरूआत की थी, क्योंकि उस समय काॅफी पर अरब साम्राज्य का एकाधिकार था और वे उन्हें सिर्फ roasted या boiled form में ही बाहर ले जाने देते थे। वे नहीं चाहते थे कि उनके अलावा कोई दूसरा देश काॅफी का व्यापार करे। बाबा बुदान के संत होने की वजह से उन्हें इन काॅफी बीन्स को भारत लाने में कोई दिक्कत नहीं हुयी। उनके द्वारा काॅफी को लाने के बाद, कर्नाटक के अलावा तमिलनाडु व केरल में भी बड़े पैमाने पर काॅफी के बागान लगाये गये। भारत में उगायी जाने वाली काॅफी दुनिया भर में सबसे अच्छी गुणवत्ता की काॅफी मानी जाती है, उसका कारण यह है कि इसे छाया में उगाया जाता है।
     
 काॅफी शब्द, अरबी शब्द 'कावा' से बना है, जिसका अर्थ वायु होता है। सबसे पहले इथियोपिया के लोगों ने काॅफी के बारे में जाना था। ऐसा माना जाता है कि 9वीं सदी में इथियोपिया में रहने वाले काल्दी नाम के माली ने देखा कि उसकी बकरियाँ काॅफी खाकर अधिक ऊर्जावान रहती हैं। इसके बाद तो काॅफी इथियोपिया से होते हुए यमन में पहुँचा और फिर वहाँ से पूरी दुनिया में कॉफी का विस्तार हुआ। बहुत से लोगों ने तो काॅफी का इस्तेमाल रात भर जगने के लिए भी किया, क्योंकि उन्हें काॅफी पीने से नींद नहीं आती थी। वैसे आज भी काॅफी या चाय का इस्तेमाल रात को जगने के लिए किया जाता है। मोका यमन में 'ओमर' नाम के एक हकीम तो काॅफी का इस्तेमाल अपने मरीजों के लिए भी करते थे। 
        
         पहले भारत में काॅफी में शक्कर की जगह शहद का इस्तेमाल होता था। 17वीं और 18वीं सदी में अच्छी काॅफी की पहचान दूध के द्वारा की जाती थी और इस प्रकार की काॅफी को डिग्री काॅफी कहा जाता था। इसमें मिलाया गया दूध एकदम शुद्ध होता था और इस तरह का काॅफी पीना अमीर होने की पहचान माना जाता था।

     
  भारत में पहला काॅफी शाॅप, प्लासी की युद्ध के बाद कोलकाता में खोला गया। काॅफी की उत्पादकता व गुणवत्ता को बढ़ाने के उद्देश्य से भारत में पहला काॅफी रिसर्च सेंटर 1925 में चिक्कामगलुर जिले में बेलेहोनर के पास स्थापित किया गया। 1936 में भारतीय काॅफी हाऊस की पहली चेन की शुरूआत हुई और सबसे पहले इसे मुम्बई में खोला गया, फिर कोलकाता और केरल में भी इसके ब्रांचेस खोले गये। 1970 तक आते-आते भारत में काॅफी ने एक पूरा उद्योग खड़ा कर दिया था। काॅफी की इस जरूरत को महसूस करते हुए सन् 1942 में काॅफी बोर्ड की नींव रखी गयी। भारत का काॅफी बोर्ड, एक स्वायत्त निकाय है, जो वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय; भारत सरकार के अधीन कार्य करता है।
       आज भारत में करीब 1,71,000 काॅफी के बागान हैं; जहाँ नौ लाख एकड़ की जमीन पर काॅफी ऊगायी जाती है। भारतीय दुनिया का छठे नम्बर का काॅफी पैदा करने वाला देश है। यहाँ पर पूरी दुनिया की 4.5% काॅफी ऊगायी जाती है। साल 2015 में भारत ने 349,980,000 kg काॅफी बीन्स का उत्पादन किया था। तो भारत में काॅफी की जो यात्रा सात बीन्स से शुरू हुयी थी, उसने आज बढ़कर एक बड़े कारोबार का शक्ल ले लिया है। 

                                                                                                 ( फोटो - विकिपीडिया )
     

Saturday 23 September 2017

यथार्थ की तलाश : आँखों देखी

हमारे जीवन का सच क्या है? आखिर ऐसा क्या है जिस पर हम विश्वास कर लें। क्या हर वक्त, हर जगह विश्वास करना सही होता है? क्या हमें आँखें मूँद कर सब कुछ मान लेना चाहिए या फिर ढूँढनी चाहिए, वो वजह जिसके वजह से वो सच, सच बना है। ये तो सही बात है कि हम उस बात पर कैसे विश्वास करे लें, जो हमारी 'आँखों देखी' नहीं है। हमें बचपन से सिखाया गया है कि ये ऐसा है, ये वैसा है और ये तुम्हें मानना ही है, और मानना इसलिए नहीं है कि ये ऐसा है या फिर ऐसा होता होगा। बल्कि मानना इसलिए है कि लोग इसे ऐसा ही मानते आये हैं। भले ही उसका वास्तविक रूप वो हो ही न, जैसा उसे लोगों ने स्वीकार किया है। लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल भी नहीं है कि हम हर एक चीज पर ही सवाल करें। कुछ इसी तरह के सवालों के जवाब तलाशती है, रजत कपूर की फिल्म 'आँखों देखी'। 
    
 इस फिल्म के मुख्य किरदार बाऊजी, जिसको संजय मिश्रा ने बड़ी संजीदगी के साथ निभाया है; ऐसे ही सवालों के जवाब पाने के लिए अपने अंदर झाँकते हैं। वो अपने आप को महसूस करने की कोशिश करते हैं और खुद को और दुनिया को समझने की कोशिश करते हैं। लेकिन उनकी इस कोशिश को बाकी सब लोग पागलपन समझते हैं। कुछ उनकी नकल उतारते हैं, तो कुछ उन्हें चिढ़ाते हैं। लेकिन समझ कोई नहीं पाता है।
इस फिल्म का एक सीन बहुत ही अच्छा है; जब पंडित जी, बाऊजी को 'प्रसाद' देते हैं और बापूजी कहते हैं कि नहीं ये तो 'मिठाई' है। बाऊजी की ज़िन्दगी में सब कुछ एक ढर्रे पर नहीं चलता है, बल्कि वो तो अलग-अलग नाव में सवार होकर तैरते रहते हैं। यहाँ पर बाऊजी में उस इंसान की परछाई नजर आती है, जो यथार्थ से वाकिफ होना चाहता है, उसको जीना चाहता है। फिल्म के आखिरी सीन में बाऊजी इसी यथार्थ के पीछे भागते हुए नजर आते हैं और उस यथार्थ का अनुभव करते हैं। वो उड़ रहे होते हैं, उन्हें इसमें खुशी मिलती है। उनके ही शब्दों में उनकी इस खुशी को शब्दों में बयाँ करना मुश्किल है।
        
इस फिल्म में मध्यवर्गीय समाज को बहुत ही करीब से दिखाया गया है। संयुक्त परिवार की उलझनों से लेकर बाहरी समाज की सोच तक को तक को रजत कपूर ने बड़े अच्छे ढंग से पर्दे पर उतारा है। यहाँ यही है कि कहीं कोई विचार किसी पर थोपे जा रहे हैं, तो कहीं किसी के विचारों का महत्व ही नहीं है।
      
 संजय मिश्रा को हम बाकी की फिल्मों में एक काॅमेडियन के दौर पर ही देखते आये हैं। जैसे कि वो All the best में 'Dhondu just chill' बोल कर के हँसाते हैं। लेकिन इस फिल्म में उन्होंने बिल्कुल इसके विपरीत काम किया है और एक आम इंसान के किरदार को पूरी तरह से जीवंत किया है। उनका अभिनय कहीं भी बनावटी नहीं लगता। हमें ये तो मानना ही पड़ेगा कि संजय मिश्रा उन कलाकारों में से हैं, जो कि हर तरह का किरदार निभा सकता है। संजय मिश्रा के अलावा रजत कपूर ने भी अपने सशक्त अभिनय की छाप छोड़ी है।
           
गीतों की बात की जाये तो वरूण ग्रोवर को तो शब्दों से खेलने में महारथ हासिल है। यहाँ पर भी उन्होंने इसका प्रदर्शन किया है। सागर देसाई ने भी उनका भरपूर साथ दिया है, जिनकी बनायी संगीत वरूण ग्रोवर के गीतों पर बिल्कुल फिट बैठती है। इसका एक गानी 'लागी नयी धूप' तो दिल को छू जाता है।
       

Friday 22 September 2017

विज्ञान की समझ को आसान बनाते विज्ञान केंद्र

विज्ञान का संसार बहुत ही बड़ा है और ये विषय मानवीय सभ्यता के विकास के साथ-साथ कई रोचक तथ्यों को भी अपने आप में समेटे हुए है। जैसे कि इंद्रधनुष का बनना, सूर्य या चन्द्र ग्रहण का लगना और भी बहुत कुछ। वैसे तो हम अपने आस-पास हर वक्त विज्ञान से ही रुबरू रहते हैं, लेकिन विज्ञान द्वारा निर्धारित इन प्राकृतिक क्रियाओं को हर एक आम इंसान नहीं समझ पाता। विज्ञान की इसी समझ को आसान बनाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद् द्वारा देश भर में 49 विज्ञान केंद्रों की स्थापना की गई। ये विज्ञान केंद्र आम लोगों को भी सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित करता है और उसके मन में भी विज्ञान के प्रति रूचि पैदा करता है।
    
  नई दिल्ली में प्रगति मैदान के पास भैरों मार्ग पर स्थित 'राष्ट्रीय विज्ञान केंद्र' इन्हीं 49 विज्ञान केंद्रों में से एक है। विज्ञान से संबंधित प्राचीन काल की जानकारियों से लेकर 21वीं सदी के डिजिटल युग तक, हर कुछ देखने व सुनने को मिलेगा इस विज्ञान केंद्र में। यहाँ पर आप विज्ञान के प्रयोगों को खुद भी कर के देख सकते हैं, उपकरणों को छू सकते हैं और यहाँ आपको कोई कुछ नहीं बोलेगा। यहाँ आप ये देख सकते हैं कि कैसे पियानो को बिना छुए, बस हवा में हाथ घुमाने से ही पियानो बजने लगता है। दरअसल ये इंफ्रारेड किरणों के कारण होता है। वहाँ जाकर आप इन सब के पीछे छिपे संपूर्ण तथ्यों को भी जान सकते हैं।
        
 इस विज्ञान केंद्र में 'हमारी वैज्ञानिक और प्रोद्यौगिक धरोहर' नाम का एक सेक्शन है, जिसमें प्राचीन भारत के वैज्ञानिक विकास को दिखाया गया है। इस सेक्शन में अनेक भारतीय वैज्ञानिकों जैसे आर्यभट्ट, कणाद, नागार्जुन की उपलब्धियों को भी दर्शाया गया है। इसके अलावा शल्य चिकित्सा व सुश्रुत द्वारा बनाये गये उपकरणों के माॅडल भी यहाँ देखने को मिल जायेंगे। 


 इसके आगे 'मानव जीव विज्ञान' नाम का एक सेक्शन है, जहाँ हमारे शरीर से संबंधित अनेक जानकारियाँ दी गयी हैं। थोड़ा और आगे जाने पर प्रागैतिहासिक काल से भी जुड़ी चीजें देखने को मिलती हैं। 
       
       'सूचना का इतिहास' नामक एक सेक्शन में बहुत ही रोचक वस्तुएँ देखने को मिलती हैं। ये सेक्शन उन युवाओं को काफी मजेदार लगेगा, जो 20वीं सदी के अंत में पैदा हुए। क्योंकि पुराने जमाने कि बहुत सी ऐसी वस्तुएँ यहाँ रखी हुयी हैं, जो कि हमें उसी समय में लेकर चली जाती हैं। जैसे कि पहले के तार घर, लाईट हाउस, रेलवे स्टेशन के पुराने माॅडल, पुराने कैमरे, पुराने वाद्य यंत्र और भी बहुत कुछ। इस सेक्शन के आगे बढ़ने पर हम 'डिजिटल क्रांति' नाम के एक सेक्शन में प्रवेश करते हैं और ये सेक्शन डिजिटल दुनिया के विकास को प्रदर्शित करता है। यहाँ पर पहले के वो कम्यूटर भी रखे हुए हैं, जो कि आकार में बहुत बड़े होते थे और उनकी स्पीड कम होती थी। साथ ही साथ आजकल के आधुनिक कम्प्यूटर व स्मार्टफोन भी मौजूद हैं। इस सेक्शन में डिजिल इलेक्ट्राॅनिक्स से संबंधित कई कंपोनेन्ट्स जैसे IC(Integrated Circuit), transistors  के बारे में भी बताया गया है।
  
   इस सेक्शन के नीचे आने पर हमें भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रमों के विकास की झलक देखने को मिलती है। इसके बाद का सेक्सन इतिहास व राजनीति से संबंधित है; जहाँ आॅडियो व विडियो के माध्यम से बहुत से नेताओं के भाषण, देश-दुनिया की तमाम जानकारियाँ देखने व सुनने को मिलती हैं।
      
 नई दिल्ली के अलावा कोलकाता, मुबंई, लखनऊ जैसे शहरों में भी इसी तरह के विज्ञान केंद्रों की स्थापना की गयी है। जहाँ पर विज्ञान को जानने व समझने के लिए मजेदार तरीकों का उपयोग किया गया है। लखनऊ के अलीगंज में स्थित 'आंचलिक विज्ञान नगरी' में आंतरिक प्रदर्शनी के अलावा बाहर खुले में भी विज्ञान के कई उपकरण रखे गये हैं, जो कि विज्ञान के नियमों को आसानी से समझाते हैं। यहाँ सबसे रोचक एक नल है जो कि हवा में लटका हुआ है और वहाँ से पानी लगातार गिरता ही रहता है। यहाँ आने वाले सभी पर्यटकों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण का केंद्र यही नल है। अब इसके पीछे माँजरा क्या है, ये तो वहाँ जा कर ही पता लगेगा। 
       
       तो जो लोग विज्ञान के इस रोचक संसार को करीब से जीना चाहते हैं, उसे जानना व समझना चाहते हैं, इतिहास को जीवित रूप में देखना चाहते हैं, ऐसे लोगों को इन विज्ञान केंद्रों के दर्शन जरूर करने चाहिए और अपनी सोच व समझ को विकसित करना चाहिए।

Saturday 9 September 2017

संस्कृत बोलता एक गांव....


हम सभी संस्कृत को एक भाषा के तौर पर जानते तो हैं, लेकिन उसका इस्तेमाल न के बराबर करते हैं। आज के समय में यदि कोई संस्कृत में बात करता दिख जाए, तो उसे एक अलग नजर से ही देखा जायेगा। लेकिन कर्नाटक के एक गाँव मत्तूर में लोग आज भी संस्कृत में ही बात करते हैं।
     

    संस्कृत पूरे विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है। प्राचीन भारत में मुख्य रूप से संस्कृत ही लिखी, पढ़ी व बोली जाती थी। वेद, ग्रंथ, पुराण व उपनिषद् ये सभी संस्कृत भाषा में ही लिखे गये। संस्कृत भाषा का प्रभाव विश्व की अन्य भाषाओं पर भी रहा है; जैसे कि अंग्रेजी का शब्द 'man', संस्कृत के शब्द 'मनु' से बना है। लेकिन समय के बदलने के साथ-साथ इस भाषा का महत्व कम होता चला गया और ये सिर्फ विद्यालयों व किताबों तक सिमट कर रह गयी। इन सब के बावजूद मत्तूर गाँव ने इस प्राचीन भाषा को आज भी ज़िन्दा रखा हुआ है। शिमोगा जिले में तुंगभद्रा नदी के किनारे बसे इस गाँव में हर एक इंसान संस्कृत बोलता नजर आ जायेगा। यहाँ पर संस्कृत बोलचाल की भाषा है; ठीक उसी तरह जैसे हिन्दी, भोजपुरी, गुजराती, बंगाली व अन्य भाषायें हैं।
       
     ऐसा माना जाता है कि मत्तुर भारत का आखिरी ऐसा गाँव है, जहाँ संस्कृत बोली जाती है। इस गाँव के सभी निवासी वैदिक जीवन व्यतीत करते हैं अर्थात् वो संस्कृत के ग्रंथों का सदैव पाठ करते हैं। यहाँ पर संस्कृत बोलने वाला शख्स कहीं भी और कभी भी देखा जा सकता है। दुकानदार और पंडित से लेकर छोटे बच्चे तक धड़ाधड़ संस्कृत बोलते हैं। और तो और, यहाँ पर तो कई लोग मोबाईल पर भी संस्कृत में बात करते दिख जायेंगे।
    संस्कृत बोलने की वजह से यह गाँव बाहरी लोगों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। बहुत से लोग दूसरे शहरों से यहाँ संस्कृत सीखने आते हैं। मत्तूर के एक आचार्य के अनुसार, अब तो वे विदेशी लोगों को भी संस्कृत की शिक्षा दे रहे हैं; जो लोग इस गाँव में नहीं आ पाते, उन्हें 'skype'  पर शिक्षा दी जाती है। ये इस बात का प्रमाण है कि मत्तूर के निवासियों ने वैदिक परंपरा को तो बनाये ही रखा है, साथ में वो आजकल की technology से भी up-to-date हैं।
       शिक्षा के बाकी क्षेत्रों में भी मत्तूर पीछे नहीं है। यहाँ के लगभग हर परिवार में एक साॅफ्टवेयर इंजीनियर है और भी बहुत से छात्र मेडिकल, कला व विज्ञान के क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। इसके अलावा इस गाँव के कुछ व्यक्ति संस्कृत के प्रोफेसर के तौर पर भी विश्वविद्यालयों में कार्यरत हैं।
       
                                                                                                   ( फोटो- विकिपीडिया )

Wednesday 6 September 2017

देशभक्ति के अर्थ को नये ढंग से परिभाषित करती फिल्म - रंग दे बसंती



हम सभी का इस देश के नागरिक होने के नाते, क्या कोई फर्ज नहीं बनता कि हम अपनी जिम्मेदारियों को अच्छी तरह से समझें व उनका पालन करें। क्या हम यूँ ही भागते रहेंगे, अपनी उन जिम्मेदारीयों से, जो हमारी इस देश के प्रति बनती हैं। आखिर दूसरों की गलतियों पर हम कब तक पर्दा डालते रहेंगे, कब तक बर्दाश्त करेंगे। ये बर्दाशत की हद कभी ना कभी तो पार होगी ही। 
         राकेश ओमप्रकाश मेहरा द्वारा निर्देशित फिल्म 'रंग दे बसन्ती' में यही दिखाया गया है। पहले तो इस फिल्म के कुछ किरदार देश के लिए अपनी जिम्मेदारियों से दूर भागते दिखायी पड़ते हैं और इस देश के सिस्टम को कभी न सुधरने वाला समझते हैं। लेकिन जब क्रांति से संबंधित वे एक डाॅक्यूमेंट्री कर रहे होते हैं, तो उनमें एक भावना उभर कर आती है। जो उन्हें उनकी जिम्मेदारियों का अहसास कराती है। इसी दौरान उनका दोस्त जो कि एयर फोर्स में पायलट है, शहीद हो जाता है; जिसका कारण भ्रष्ट सरकारी सिस्टम है। तो वे उस सरकारी सिस्टम से लड़ने की सोचते हैं। लेकिन वो वहाँ कामयाब नहीं होते। फिर वो उस मंत्री को मार देते हैं, जो इस घटना के लिए जिम्मेदार है। लेकिन यहाँ भी बात नहीं बनती। उसके उलट भ्रष्ट मंत्री को महान बता दिया जाता है। अंत में वे सभी ये फैसला करते हैं कि वे पूरे देश को बता देंगे कि मंत्री को उन्होंने ही मारा है और वे रेडियो के जरिये ऐसा ही करते हैं। वे ये भी बतातें हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। लेकिन सरकार को तो बस मंत्री के हत्यारों से मतलब होता है। वो रेडियो स्टेशन पर फोर्स भेज देती है और समर्पण करने के बावजूद सब के सब मारे जाते हैं। ये जानने के बाद पूरे देश के युवाओं में एक उबाल आ जाता है, उसे वे एक नयी क्रांति की शुरूआत बताते हैं और इसमें एक किरदार 'डीजे' के दादाजी कहते हैं- " साहब जी साडा बच्चा दी कुर्बानी कबूल करें। " आखिर उन्होंने कुर्बानी ही तो दी है, इस देश के भ्रष्ट सिस्टम के खिलाफ। ठीक उसी प्रकार जैसे पहले क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के अत्याचारों के खिलाफ कुर्बानी दी थी।
          इस फिल्म में निर्देशक ने बड़ी अच्छी तरह से ये दिखाने की कोशिश की है कि यदि युवाओं में कुछ कर गुजरने का जज्बा आ जाये, तो वे उसे कर के ही दम लेते हैं और तब देशभक्ति की एक नयी मिशाल पेश होती है। इस फिल्म में सरकारी सिस्टम पर भी एक तंज कसा गया है, जो कि उन पाँचों युवाओं के निर्दोष होने के बावजूद भी, उन्हें नहीं बख्शती।
         स्टोरी व निर्देशन के अलावा इस फिल्म के लिखे गए गीत व संगीत कमाल के हैं। चाहे वो देश को समर्पित टाइटल ट्रैक 'रंग दे बसंती' हो या फिर माँ और बेटे के बिछुड़ने के दर्द को बयाँ करता हुआ 'लुका छिपी' गाना। हर गाने में प्रसून जोशी ने अपने शब्दों से व ए आर रहमान ने अपने धुनों से मन मोह लिया है। रही बात अदाकारी की, तो आमिर खान से लेकर वहीदा रहमान तक ने एक-एक सीन को बिल्कुल अच्छे से पकड़ा है। इसमें ऐलिस पैटन द्वारा निभाया गया, सू का किरदार भी अपना एक प्रभाव छोड़ता है। लेकिन सबसे अलग अदाकारी भगत सिंह व करन का रोल करने वाले एक्टर सिद्धार्थ ने की है। जिस तरह से सिद्धार्थ ने अपने फेसियल एक्सप्रेसन्स से अपने किरदार को मजबूती दी है, वो वाकई देखने लायक है।
         कुल मिलाकर 'रंग दे बसन्ती' फिल्म बाॅलीवुड की बाकी कामर्शियल फिल्मों से बिल्कुल हटकर है। जैसा कि कई समीक्षकों ने लिखा है, ये फिल्म वाकई देशभक्ति की एक नयी परिभाषा को जन्म देता है। इस फिल्म में देशभक्ति भी है, काॅलेज की मस्ती भी है और कुछ जगहों पर प्यार की झलक भी देखने को मिल जाती है।
         
                                                                                                     ( फोटो - विकिपीडिया )

Friday 1 September 2017

तोशाखाना - सरकारी तोहफों का निवास स्थान

   हमारे प्रधानमंत्री मोदी जब भी किसी विदेशी दौरे पर जाते हैं, तो उन्हें अक्सर वहाँ की सरकार द्वारा कोई स्मृति चिन्ह या उपहार भेंट किया जाता है। लेकिन क्या ये सभी उपहार मोदी जी के स्वंय के होते हैं। नहीं, ऐसा नहीं है। जब भी कोई मंत्री, राजनयिक या कोई अन्य अधिकारी विदेशी दौरे पर जाते हैं और वहाँ यदि उन्हें कोई उपहार मिलता है, तो ये लोग इसे रखते नहीं हैं। बल्कि ये सारे उपहार विदेश मंत्रालय के तोशाखाना में जमा होते हैं। इस तोशाखाने में गुलदान, चटाई, कांच के बाॅक्स जैसी साधारण वस्तुओं से लेकर आइपैड, सोने की कढ़ाई वाले गाउन जैसी कई कीमती वस्तुएँ भी जमा हैं। 
         ऐसा नहीं है कि कोई मंत्री या अधिकारी इसे कभी अपने पास रख नहीं सकते। वे इन प्राप्त वस्तुओं की कीमत चुकाकर अपने साथ ले जा सकते हैं। विदेश मंत्रालय के जून 1978 के गजट के अनुसार इन प्राप्त तोहफों की कीमत का आकलन भारतीय बाजार की कीमतों के आधार पर किया जाता है और इन कीमतों का आकलन विदेश मंत्रालय ही करता है।
            जनवरी 2017 से लेकर मार्च 2017 तक अभी कुल 83 वस्तुएँ इस तोशाखाना में जमा हुयी हैं। जिसमें  आइफोन-7, वुलेन मफलर, कलाई घड़ी, सिल्वर कलर प्लेट, कालीन और ऐसी ही बहुत सी चीजें हैं। इसमें सबसे ज्यादा वस्तुएँ वाणिज्य एवं उद्योग राज्य मंत्री निर्मला सितारमन ने जमा की हैं। इनके द्वारा इस बीच जमा की गयी कुल वस्तुओं की संख्या 17 है। इन्होंने एक टी पाॅट सेट, शैम्पेन ग्लासेस, एक baby doll (cloth), तीन wooden doll, एक पेन ड्राईव, एक पेंटिंग जैसी वस्तुएँ जमा कर के तोशाखाने की शोभा बढ़ाई है।
            इस दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इसे तोशाखाने में एक Mont blanc ball point pen, एक मूर्ति (Argillite Carving), एक Malachite Stone वाला फूलों का हार जैसी वस्तुएँ जमा की हैं। जबकि विदेश मंत्री सुषमा स्वाराज ने इस तोशाखाने में एक कैंडल स्टैंड, एक काॅफी सेट, एक गणेश जी की मूर्ति व एक टी सेट जमा किया है।