Tuesday, 20 December 2016

कोडिन्ही- एक ऐसा गाँव जहाँ हर तरफ जुड़वा ही रहते हैं

दुनिया में तरह-तरह की विचित्रतायें मौजूद हैं। इनमें से कुछ वस्तुयें हैं, तो कुछ जगहें हैं या फिर कुछ लोग। हमारे भारत में भी बहुत सी विचित्र जगहें हैं। इन्हीं में से एक है केरल का कोडिन्ही गाँव। मलप्पुरम जिले में स्थित इस गाँव को जुड़वों का गाँव (Twin Town) के नाम से जाना जाता है। यदि हम यहाँ जायें तो हमें चारों ओर जुड़वे ही दिखायी देंगे। सोचिये इनके घर वालों को कितनी परेशानी होती होगी। कभी ऐसा भी हुआ हो कि गलती किसी और ने की हो और डाँट कोई और खाया हो। खैर वहाँ के लोगों को इसकी आदत भी हो गयी होगी। भारत में जहाँ जुड़वे बच्चे पैदा होने का औसत बहुत ही कम है, वहीं इस गाँव में हर 1000 बच्चे पर 45 जुड़वा बच्चे पैदा होते हैं। जुड़वा बच्चे पैदा होने का यह औसत एशिया में पहले नम्बर पर आता है, जबकि विश्व में दूसरे नम्बर पर। विश्व में पहले नम्बर पर नाइज़ीरिया का इग्बो-ओरा है, जहाँ जुड़वा बच्चे पैदा होने का औसत 145 के आस-पास है। 
   इस गाँव की आबादी 2000 के करीब है और यहाँ पर अधिकतम मुस्लिम समुदाय के लोग ही रहते हैं। कोडिन्ही गाँव के स्थानीय लोगों के अनुसार यहाँ सबसे पुराने जुड़वा बच्चे 1949 में पैदा हुये थे। पहले तो जुड़वा बच्चे पैदा होने का यह सिलसिला बहुत धीमा था, लेकिन पिछले कुछ सालों में इसमें वृद्धि आयी है। पिछले 10 सालों में यहाँ जुड़वा बच्चे पहले के दोगुने हो गये हैं। यहाँ तो 79 जुड़वा जोड़े केवल 0-10 साल के बीच हैं। जुड़वों के बारे में अध्ययन करने के लिए सरकार ने इस गाँव में एक डाॅक्टर भी नियुक्त किया है, जिनका नाम कृष्णन श्री बीजू है। कोडिन्ही में जुड़वा लोगों के 220 जोड़े  गाँव में officially registered हैं। जबकि डाॅक्टर श्री बीजू के अनुसार इन जोड़ों की संख्या 300-350 है। यहाँ तो दो जोड़े ऐसे भी हैं जो कि तुड़वा (triplets) हैं। पिछले कुछ सालों में यह गाँव बहुत ही चर्चित हो चुका है। विदेशों से भी कई लोग इसे देखने व यहाँ पर शोध करने के लिये आते हैं। कुछ डाॅक्टरों का यह मानना है कि इस गाँव के खान-पान के चलते यहाँ जुड़वा बच्चे पैदा होते हैं, जबकि यहाँ का खान-पान केरल के बाकी इलाकों से कोई खास अलग नहीं है। इसलिए डाॅक्टरों का यह तर्क सही नहीं लगता। अभी तक जुड़वा बच्चे पैदा होने का कोई ठोस कारण नहीं पता चल सका है। क्योंकि जिन औरतों की शादी कोडिन्ही के बाहर होती है और आदमी जो दूसरे गाँव की औरतों से शादी करते हैं, ऐसी औरतें भी जुड़वा बच्चों को जन्म देती हैं। अब पता नहीं वो क्या वजह है, जिसके कारण ऐसा हो रहा है। अब इसका पता तो इस पर होने वाले बाकी शोधों के परिणामों से ही पता चलेगा।
      जो भी हो इस गाँव के लोग अपनी इस खासियत के कारण आकर्षण का केंद्र तो बन ही गये हैं और बने भी क्यों नहीं उनमें ऐसी बात ही है, जो उनको बाकीयों से अलग करती है। 
                                                                                          (Photo- Niklas Halle'n)
       
     

Thursday, 10 November 2016

भ्रष्टाचारियों पर घोर प्रहार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जैसे ही 500 व 1000 के नोटों के बंद होने की घोषणा की, वैसे ही घंटे भर के भीतर पूरे देश में हलचल मच गयी। बेशक इन नोटों को बंद करने का यह फैसला ऐतिहासिक है व पूरी तरह से सार्थक भी। इसे बंद करके उन्होंने काले धन, नकली नोटों के व्यापार व आतंकवाद जैसी ही कई अन्य गतिविधियों पर घोर प्रहार किया है, जो अभी तक हमारी अर्थव्यवस्था को क्षति पहुँचा रहे थे। देश के अधिकतर लोगों ने इस फैसले का स्वागत किया है, सिवाय उनके जिनके पास कालाधन है या जो आर्थिक नीतियों को ठीक से नहीं समझते हैं। ये लोग बिना सोचे समझे कुछ भी बोलते रहते हैं। यह खबर मिलने के बाद तो भ्रष्ट नेताओं व अधिकारियों के रातों की नींद ही उड़ गयी होगी। अब इनको अपनी जमापूँजी को नष्ट ही करना होगा। यदि वे इसे बैंक में जमा करते हैं, तो उन्हें इस पर 30 प्रतिशत टैक्स के अलावा 200 प्रतिशत पेनाल्टी भी देनी पड़ेगी और जो जेल होगी सो अलग। कुछ लोगों का यह कहना है कि इससे गरीब किसानों व दुकानदारों को नुकसान होगा और आम आदमी को परेशानी का सामना करना पड़ेगा। उनकी यह बात भी सही है। कल से बाजार बिल्कुल बंद पड़ा हुआ है और बहुत से लोग परेशानी का सामना कर रहे हैं, मैं इस बात से पूर्ण रूप से सहमत हूँ। लेकिन दूसरी तरफ यह बात भी बिल्कुल सत्य है कि बीमारी को खत्म करने के लिये थोड़ा कष्ट तो सहना ही पड़ता है। यदि सरकार के इस निर्णायक कदम में हम उनका साथ दें, तो हमें ही फायदा होने वाला है। हमें कुछ दिनों की परेशानी को स्वीकार्य करना चाहिये।
      इसके पहले भी सरकार ने इन भ्रष्टाचारियों को आय घोषणा योजना (IDS) के तहत एक मौका दिया था कि 30 सितंबर तक अपनी सारी संम्पत्ति की घोषणा कर दें। IDS में करीब 66 हजार करोड़ रूपये की अघोषित आय सामने आयी थी, जबकि कालाधन इसके कई गुना है।  सरकार ने यह भी कहा था कि जिन लोगों ने अभी तक काले धन की घोषणा नहीं की है वह दंड भुगतने के लिए तैयार रहें। लेकिन कुछ महान लोगों ने इसे मजाक में लिया और सोचा कि सरकार कहाँ-कहाँ रेड डालेगी। लेकिन सरकार ने तो एक ही बार, एक ही समय में भ्रष्टाचारियों के घरों में रेड डाल दी। इन सब के अलावा कुछ बातें ऐसी भी हैं, जो थोड़ा अजीब लग रही हैं। जैसे की 1000 की जगह 2000 के नोटों को लाना। जिसकी वजह से धन इकट्ठा करने में और भी आसानी होगी। लेकिन ये आगे की बात है। फिलहाल कुछ समय तक तो काले धन पर रोक लगेगी ही। जहाँ तक नकली नोटों के कारोबार की बात है, रिजर्व बैंक के अनुसार नए नोटों में ऐसे सुरक्षा फीचर्स हैं, जिसकी वजह से नकली नोट छापना आसान नहीं  होगा। हालांकि इस फैसले के बाद भी पूरी तरह से काले धन पर लागाम नहीं लगा है, क्योंकि बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जिन्होंने यह काला धन भारतीय मुद्रा में नहीं बल्कि स्विस बैंक के खातों में जमा किया है। फिर भी इसके बावजूद काला धन का वो हिस्सा जो मुद्रा में है, या तो नष्ट हो जायेगा या फिर सरकार के पास आयेगा। ये वही रकम है, जिसका उपयोग राजनीतिक पार्टियाँ चुनाव के दौरान करती हैं व जिसके जरिये आतंकवादी देश में आतंकवाद फैलाते हैं।

Saturday, 15 October 2016

भोर का शहर

सोचिए कैसा हो, यदि हम एक ऐसी जगह पर रहें, जहाँ पर पैसे का कोई स्थान नहीं हो, ना ही कोई धर्म हो और ना ही कोई जाति। पूरी दुनिया के लगभग प्रत्येक देश की कोई ना कोई मुद्रा है और वहाँ कम से कम एक धर्म तो है ही। लेकिन आप लोगों को यह जानकर हैरानी होगी कि भारत में एक ऐसा ही प्रयोगिक शहर बसाया गया है, जहाँ पर ना तो कोई धर्म है, न तो वहाँ की कोई सरकार है और ना ही वहाँ कोई मुद्रा चलती है। यहाँ राजनीति का कोई स्थान नहीं है। पुडुचेरी के पास तमिलनाडु राज्य के विलुप्पुरम जिले में बसा यह प्रायोगिक शहर ओरोविल  के नाम से जाना जाता है। इसकी स्थापना सन् 1968 में मीरा रिचर्ड ने की थी। भारत सरकार ने भी मीरा रिचर्ड के इस अद्वितीय कार्य का समर्थन किया। इस शहर को भोर का शहर ( City of Dawn ) भी कहा जाता है। यहाँ पर कोई भी आकर रह सकता है, भले ही वह किसी भी देश का हो या किसी भी धर्म का। यहाँ पर रहने वाले लोग बँटे हुए नहीं हैं, उनकी तो बस एक ही पहचान है कि वे मनुष्य हैं। इस शहर को भी यही भावना लेकर बनाया गया था कि लोग अपनी इस एकता को महसूस कर सकें। 
       वैसे तो इस शहर में 50,000 लोगों को जगह देने की योजना थी। लेकिन इस समय यहाँ  44 देशों के कुल 2,047 लोग निवास करते हैं, जिसमें से 836 भारतीय मूल के लोग हैं। जैसा कि मैं आपको पहले भी बता चुका हूँ कि यहाँ की कोई मुद्रा नहीं है, इसलिए यहाँ पर रहने वाले लोग एक केन्द्रीय खाते का इस्तेमाल करते हैं। शहर में एक मंदिर भी स्थापित है, जिसे मातृमंदिर कहा जाता है। हालांकि यह मंदिर किसी भी धर्म से नहीं जुड़ा हुआ है, लेकिन यहाँ पर लोग ध्यान लगाने के लिए आते हैं व शांति की अनुभूति करते हैं। इस मंदिर के आसपास का क्षेत्र प्रशांत क्षेत्र कहलाता है। मंदिर में एक स्वर्ण क्रिस्टल बाॅल भी है, जो  'भविष्य के अनुभूति के प्रतीक' का प्रतिनिधित्व करता है। इस शहर के चार क्षेत्र हैं : "आवासीय क्षेत्र", " औद्योगिक क्षेत्र", "सांस्कृतिक(व शैक्षणिक) क्षेत्र" तथा " अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र" । नगरी क्षेत्र के पास संसाधन क्षेत्र हैं, जहाँ पर खेत, वन, उद्यान व बांध स्थापित हैं। श्री औरोबिन्दो इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट आॅफ एजुकेशनल रिसर्च (SAIIER) की मदद से ओरोविल कई शैक्षणिक संस्थान भी चलाता है। ओरोविल के निवासियों से समुदाय में योगदान की अपेक्षा की जाती है। उन्हें हर एक प्रकार से समुदाय की सेवा करने को कहा जाता है। इसीलिए वहाँ रहने वाला कोई भी व्यक्ति मालिक नहीं होता है, बल्कि वो तो एक सेवक की तरह होता है। यहाँ पर आने वाले नए लोगों के लिए सबसे बड़ी परेशानी गृह-निर्माण की है, क्योंकि वर्तमान में ओरोविल सभी लोगों को आवास उपलब्ध करा पाने की स्थिति में नहीं है। नए लोगों से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपना घर बनाने में आर्थिक सहयोग दें। ओरोविल टुडे के अनुसार " नए लोगों के लिए काम के अवसर की कमी और रखरखाव का निम्नस्तर ये दो बाधाएं हैं। क्योंकि नए लोग व्यवसायिक इकाइयों या सेवा में कोई उचित काम नहीं ढूंढ पाते हैं। "

 सन् 2004 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने ओरोविल का दौरा किया तथा इसकी प्रशंसा की व अपनी सराहना व्यक्त की। UNESCO ने भी अभी तक इसका चार बार समर्थन किया है। इसकी स्थापना के समय मीरा रिचर्ड ने कहा था कि "ओरोविल भूत व भविष्य के बीच पुल बनने का आकांक्षी है। " निःसंदेह उनकी इस बात में सच्चाई है, क्योंकि जब दुनिया की शुरूआत हुयी तो मनुष्य किसी भी देश या धर्म से संबंधित नहीं थे। वो तो सिर्फ और सिर्फ मनुष्य ही थे। यही उनकी पहचान थी और आने वाले समय में शायद ऐसा ही कुछ हो। यदि कोई व्यक्ति अपनी आंतरिक परेशानियों से मुक्त होना चाहता है, एक शांति की अनुभूति व अपने अस्तित्व के होने का अहसास करना चाहता है, तो उसे यहाँ जरूर आना चाहिए।

                                                                                       (साभार- ओरोविल वेब पेज, विकिपीडिया )

Friday, 14 October 2016

कश्मीर- एक अनसुलझी कहानी

भारत और पाकिस्तान के बीच अभी तक चार युद्ध हो चुके हैं और इसमें से लगभग तीन बार इन युद्धों का कारण कश्मीर रहा है। सारे युद्ध में पाकिस्तान को हार का ही सामना करना पड़ा। लेकिन कश्मीर के कुछ क्षेत्रों में पाकिस्तान का अवैध कब्जा है, जिसे हम पाक अधिकृत कश्मीर(POK) के नाम से जानते हैं और अभी भी पाकिस्तान कश्मीर को लेकर कोई ना कोई मुद्दा उठाता ही रहता है। इस विवाद की शुरूआत सन् 1947 में शुरू हुयी, जब भारतीय रियासतों के विलय हो रहे थे। जम्मू व कश्मीर जैसे कुछ रियासत विलय में देरी लगा रहे थे। इस बात का फायदा उठाकर पाकिस्तान ने अपनी सेना को कबाइली लुटेरों के भेष में कश्मीर भेज दिया। चूँकि कश्मीर की सीमा पाकिस्तान से लगती थी, इसलिए वे वहाँ पर कब्जा जमाना चाहते थे। पाकिस्तानी सेना ने वहाँ बहुत से लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इस बात से घबराकर वहाँ के शासक महाराजा हरिसिंह ने भारत से मदद माँगी व अपनी रियासत के भारत में विलय की घोषणा कर दी। लेकिन उन्होंने यह निर्णय बहुत ही देरी से लिया, जिसके चलते पाकिस्तान ने लगभग आधे कश्मीर पर कब्जा कर लिया। इसके बाद भी भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को सबक सिखाते हुये, कई क्षेत्रों को पुनः प्राप्त कर लिया था, लेकिन तभी माननीय नेहरू जी के UNO में अपील करने के कारण युद्ध विराम की घोषणा हो गयी। जिसके कारण भारतीय सेना कश्मीर को दोबारा प्राप्त करने में असफल रही और आज तक वो क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में है, जिसका खामियाजा आये दिन हमारे देश को भुगतना पड़ रहा है। ऐसे ही 1971 के युद्ध में इंदिरा गांधी के पास भी एक मौका था, जब पाकिस्तान की सेना के 1 लाख सैनिकों ने भारत की सेना के सामने समर्पण किया था। यदि वे चाहती तो कश्मीर की समस्या को हल कर सकती थी लेकिन ये मौका भी इंदिरा गांधी ने गँवा दिया और 1 लाख सैनिकों को छोड़ दिया।
     नेहरू जी व इंदिरा गांधी के इस गलत निर्णय के कारण आज कश्मीर का वो इलाका आतंकवादियों का गढ़ बन चुका है। यहीं से ये आतंकवादी तमाम गतिविधियों का संचालन कर रहे हैं और घाटी में हिंसा फैला रहे हैं। कहने को तो POK की एक अलग सरकार है और वहाँ पर एक प्रधानमंत्री भी है, लेकिन सारा नियंत्रण पाकिस्तान के हाथ में है। वहाँ के लोग बहुत ही दुःख भरी जिन्दगी जी रहे हैं। आलम तो यह है कि POK के कई मुस्लिम परिवारों ने भारत में शरण ले रखी है। लंदन के रिसर्चरों के द्वारा वहाँ के कुछ जिलों में कराये गये सर्वे के अनुसार एक व्यक्ति ने भी पाकिस्तान के साथ खड़े होने की वकालत नहीं की। वकालत वही लोग कर रहे हैं, जो कट्टरपंथी व अलगाववादी है। यही वे लोग हैं, जो आये दिन दंगा फसाद करते रहते हैं। ये लोग वहाँ पर अमन व शांति नहीं चाहते हैं। अब तो धीरे-धीरे POK के कुछ हिस्से पर चीन भी कब्जा जमा रहा है, लेकिन इस बात से तो कट्टरपंथियों को कोई मतलब ही नहीं है, उन्हें तो बस भारत से ही परेशानी है। भारत भी अब चुप नहीं बैठने वाला, सर्जिकल स्ट्राईक के जरिए भारतीय सेना ने POK में कई आतंकियों को मार गिराया और उनके ठिकानों को तबाह कर दिया। हमें भारतीय सेना व सरकार के इस निर्णय पर गर्व है। जरूरत है तो ऐसे ही कुछ और मिशन की जिससे कि कश्मीर आतंकियों के गढ़ से मुक्त हो सके और वापस हम इसे प्राप्त कर सकें और वहाँ के लोग हिंसा से मुक्त हो सकें। इसके लिए हो सकता है कि बेशक हमें एक युद्ध लड़ना पड़े, लेकिन इसके बाद आगे हमें इन मुद्दों पर बहस नहीं करना पड़ेगा। पिछली सरकारों ने जो गलतियां की, उन्हें अब दोहराना नहीं चाहिए, व राजनीति से दूर हटकर इसपर एक सख्त फैसला लेना चाहिए।

Tuesday, 13 September 2016

वोट की राजनीति

अब यूपी के विधानसभा चुनाव नजदीक आने वाले हैं। लगभग सारी राजनीतिक पार्टियों ने चुनाव के लिए अपनी कमर कस ली है और जंग में उतरने को तैयार हैं। साथ ही इन्होंने जनता को लुभाने की भी तैयारी अच्छे से कर ली है। अब कुछ ही महीनों में सभी पार्टियाँ अपने-अपने वादों को बतलाती हुयी नजर आयेंगी। चुनाव प्रचार के दौरान तरह तरह के वादे किये जायेंगे और उन्हें निभाने का भी पूर्ण विश्वास दिलाया जायेगा, क्योंकि जनता के सेवकों को तो पता ही है कि यदि एक बार वे चुनाव जीत गए, तो उसके बाद जनता चाहे कुछ भी माँग करे, उन्हें चलना तो अपनी मर्जी से ही है। हाँ कुछ वादे जरूर पूरे किये जायेंगे ताकि भोली जनता को यह अहसास दिलाया जा सके कि उन्होंने उनके साथ धोखा तो नहीं ही किया है। चुनाव के दौरान ये जगह जगह रैलियाँ करेंगे, गरीबों के साथ बैठकर खाना खायेंगे। उन्हें यह जताने की कोशिश करेंगे कि वे उनके साथ हैं। लेकिन ये सब दिखावा होता है,  सब वोट हासिल करने की जिद्दोजहद होती है। न ही तो इन्हें गरीबों से कोई लगाव है और ना ये कुछ करना चाहते हैं। ये बस जीतने के लिए जनता का इस्तेमाल करते हैं। यदि इन्हें वास्तव में गरीबों की इतनी ही फिक्र है तो इन्हें उनके साथ बैठकर खाना खाने की जगह उनकी परेशानियों को तुरन्त हल करने के बारे में सोचना चाहिए।
           आखिर क्यों ये राजनीतिक पार्टियाँ लोगों को लालच देकर वोट हासिल करना चाहती हैं। यदि इन्हें इस देश और यहाँ के लोगों की सही में चिन्ता है, तो चुनाव के पहले वे क्यों नहीं लोगों की मदद करते हैं, क्यों चुनाव आने पर ही ये जनता का विश्वास जीतना चाहते हैं। इन पार्टियों की हालत तो ये है कि यदि सरकार में रहने वाली पार्टी ने कोई काम किया या फिर कोई योजना लायी, तो विपक्षी पार्टियाँ जरूर उस काम की आलोचना करेंगी तथा उसको जनता के लिए हानिकारक बतायेंगी। भले ही यही काम उन्होंने अपनी सरकार के दौरान किया हो। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि जिस पार्टी की सरकार है, उसने कोई अच्छी योजना लायी हो और विपक्षी  पार्टियों ने उनके काम की सराहना की हो, क्योंकि बुराई करना इनकी आदत बन चुकी है। वे योजनाओं के बारे में सोचते तक नहीं हैं, बस बिना कुछ सोचे समझे आलोचना करते हैं। अधिकतर पार्टियों और इनके नेताओं का यही हाल है। अब पता नहीं ऐसा कर के वे क्या साबित करना चाहते हैं। इन्हें देश के विकास, लोगों की जरूरतों से बहुत कम ही मतलब रहता है। ये तो बस एक दूसरे से लड़ना जानते हैं, जब तक की इन्हें एक दूसरे से कोई फायदा न हो। जब इन्हें एक दूसरे की जरूरत होती है तभी ये साथ आते हैं और तभी गठबंधन होता है।
          गलती सिर्फ राजनेताओं, राजनीतिक पार्टियों की ही नहीं है, गलती हम जैसे लोगों की भी है, गलती उस हर एक ऐसी जनता की है, जो जागरूक नहीं है। हम लोग भी इनकी लुभावनी बातों में आ जाते हैं तथा लालच के चक्कर में इन्हें वोट देते हैं। पिछले चुनावों में मैंने खुद ऐसी ही एक स्थिति बनते देखा था कि जनता किसी पार्टी को सिर्फ इसलिए वोट दे रही है कि वो उन्हें कुछ वस्तुयें दे रहा है। जो कि शायद ही उसके लिए बहुत ज्यादा जरूरी है। पहले तो हम लालच के चलते उनका साथ दे देते हैं, बाद में वही दूसरे तरीके से हमारा शोषण करते हैं। यदि हमें इस सब को रोकना है तो पहले हमें खुद में बदलाव लाना होगा और इनमें उनका साथ देने से खुद को रोकना होगा।

Thursday, 1 September 2016

धर्म v/s विज्ञान

धर्म और विज्ञान, क्या ये दोनों अलग-अलग विषय हैं? क्या जहाँ धर्म है, वहाँ विज्ञान की कोई भी बात मायने नहीं रखती है और जहाँ विज्ञान है, वहाँ धर्म का कोई स्थान नहीं। बहुत से लोगों का यह मानना है कि जहाँ पर विज्ञान जाकर खत्म होता है, वहीं से धर्म की शुरूआत होती है। उनका ये भी मानना है कि जो बातें विज्ञान के द्वारा पता नहीं की जा सकती, वो धर्म के द्वारा पता की जा सकती हैं। लेकिन सत्य तो बिल्कुल ही इसके विपरीत है। धर्म और विज्ञान परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। धर्म का ये मतलब तो कतई नहीं की हम किसी विशिष्ट देवता को ही माने या फिर उनकी पूजा करें, हाँ ये हमारे रचयिता के प्रति आस्था को जरूर प्रकट करता है। धर्म तो इस संसार व यहाँ के लोगों को जानने व समझने का एक जरिया मात्र है और विज्ञान के द्वारा भी हम लगभग यही पता करते हैं। फिर पता नहीं ये दोनों अलग कैसे हो गए।
         
         आज का जो समय है, वहाँ के लोगों ने ही इसे अलग-अलग कर दिया है और तो और उन्होंने धर्म का भी बँटवारा कर दिया कि ये धर्म मेरा है और ये धर्म तुम्हारा है। इनकी पूजा हम करेंगे और इनकी तुम। इस समय लोग धर्म का प्रयोग ज्ञान के लिए नहीं कर रहे, बल्कि वो तो इसे लड़ाईयों व भेदभाव का आधार बना रहे हैं। धर्म जो कि मनुष्य व समाज के विकास में सहायक होना चाहिए, आज उसी धर्म के नाम पर हजारों कत्ल किये जा रहे हैं। यही वे लोग हैं जिन्होंने इस शब्द का मतलब ही बदल दिया और इसे बिल्कुल अलग रख दिया। जिस तरह से इन लोगों ने विज्ञान और धर्म को अलग-अलग किया और बाद में धर्म को भी बाँट दिया, हो सकता है कि आने वाले समय में ये लोग विज्ञान को भी खंडित कर दें। कहीं ऐसा न हो जाए कि पृथ्वी के किसी एक भाग के लोग कहें कि भौतिक विज्ञान (Physics) पर हमारा अधिकार है और दूसरे भाग के लोग कहें कि जीव विज्ञान (Biology) पर हमारा अधिकार है। वहीं तीसरे भाग के लोग कहीं रसायन विज्ञान ( Chemistry) पर अपना आधिपत्य न जमाने लगें। अब बताइये जरा यदि विज्ञान की ये तीनों शाखायें अलग-अलग हो जायें तो क्या आगे कोई खोज संभव हो पायेगी, क्या नये आविष्कार हो पायेंगें। नहीं हो पायेगें, क्योंकि हम जानते हैं कि ये तीनों विषय परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। ठीक उसी प्रकार धर्म और विज्ञान भी एक दूसरे से संबंधित हैं।
      
          विज्ञान के बारे में प्रारम्भिक ज्ञान हमें धर्म से प्राप्त हुआ है और धर्म का पुरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमने विज्ञान का सहारा लिया है। जैसे हमें यदि कहीं पर खुदाई में कोई वस्तु प्राप्त होती है तो हम तकनीक का प्रयोग करके उस वस्तु के समय काल का पता लगाते हैं और फिर वहाँ की सभ्यता व संस्कृतियों का अनुमान लगाते हैं। वैसे ही धर्म विज्ञान को अपनी पुरानी पद्धतियों से परिचय कराता है ताकि वो किसी नए खोज या आविष्कार का आधार बन सकें। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि धर्म और विज्ञान दोनों का ही लोग, समाज व  वहाँ की संस्कृतियों के विकास में बराबर का योगदान है और आगे भी हम इन दोनों की सहायता से ही विकास करेंगे और अनसुलझे रहस्यों को सुलझायेंगे।

Saturday, 27 August 2016

कारगिल के योद्धा

पिछले कुछ दिनों पहले मैं टीवी पर एक फिल्म LOC KARGIL देख रहा था। यह फिल्म 1999  की कारगिल की लड़ाई पर आधारित थी। फिल्म देखते वक्त ऐसा लगा कि कारगिल के इन वीर जवानों ने तो देश व देशवासियों की सुरक्षा के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर दी थी, लेकिन हम में से ऐसे कितने लोग हैं जो इनकी कुरबानी को याद रखते हैं। बहुत लोगों को तो ये भी नहीं पता होगा कि कारगिल का युद्ध हुआ कब था। कई लोगों को तो इन सब चीजों से  कोई मतलब ही नहीं होता है उन्हें तो बस अपने ही जीवन में उलझे रहना आता है। वे बीते जमाने के मशहूर अभिनेताओं, गायकों व नेताओं को तो जरूर याद रखते हैं, लेकिन इन जवानों के बारे में उन्हें पता तक नहीं होता है। अपने यहाँ राजनेताओं और कलाकारों का जन्मदिवस व निर्वाण दिवस जरूर मनाया जाता है, लेकिन इन वीर जवानों के बारे में कोई पूछता तक नहीं है। इतने सालों बाद ये जैसे भुला दिये गए हैं। हम ये कैसे भूल जाते हैं कि ये वही जवान हैं जिनकी वजह से आज हम सुरक्षित हैं। यदि ये नहीं होते तो शायद आज हम चैन की साँस नहीं ले रहे होते।
       हमें ये जान कर बहुत ही हैरानी होगी कि कारगिल के युद्ध में शहीद होने वाले कुछ जवानों जिनमें कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय, कैप्टन विक्रम बत्रा, कैप्टन अनुज नायर व कैप्टन विजयान्त थापर शामिल हैं इन सबकी उम्र तो सिर्फ 24-25 साल ही थी। इन सब के अलावा बहुत से और भी ऐसे जवान थे जिन्होंने इस युद्ध में अपना योगदान दिया। जैसे सिर्फ 19 साल की ही उम्र में कारगिल की लड़ाई लड़ने वाले योगेन्द्र सिंह यादव व 23 साल की उम्र में दुश्मनों से मोर्चा लेने वाले संजय कुमार। इतनी कम उम्र में जहाँ कई लोग अपने करियर को सँवारने में लगे रहते हैं, वहाँ इन सभी नवयुवकों ने छोटी सी ही उम्र में दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये थे। कारगिल के युद्ध में शहीद होने वाले कैप्टन विजयान्त थापर ने शहीद होने से पहले अपनी माता जी को एक चिट्ठी लिखी थी, जिसमें उन्होंने अपनी माताजी से अनाथालय में कुछ रूपये दान करने की बात कही था। ऐसे होते हैं सच्चे देशभक्त जिन्हें अपने जीवन के अंतिम क्षण में भी अपने देशवासियों की चिन्ता होती है। इस युद्ध में शहीद हुए जवानों को क्या अपने परिवारों की चिन्ता नहीं थी। क्या वे नहीं चाहते थे कि उन्हें भी आराम की जिन्दगी मिले। लेकिन इन सभी बातों को छोड़कर उन्होंने देश के बारे में सोचा व देश के मान व सम्मान के लिए जंग लड़ा। इसके लिए उन्होंने अपनी निजी जीवन की तनिक भी चिन्ता नहीं की और एक हम हैं जो उनकी कुर्बानियों को भुला रहे हैं।
    कारगिल के उन वीर जवानों की तरह ऐसे और भी कई जवान थे जिन्होंने इससे पहले के युद्धों में अपनी वीरता का प्रदर्शन किया और आज भी ऐसे कई जवान देश की सुरक्षा में लगे हुए हैं। मैं ये नहीं कहता कि उनके जन्मदिवस को याद ही रखा जाए, लेकिन हम उनकी उस वीरता को तो याद रख सकते हैं। जिसकी वजह से हमारा देश दुश्मनों के प्रहार से बच पाया था।

Thursday, 25 August 2016

अंधविश्वास में विश्वास

हमारे भारत को विश्व के प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक माना जाता है तथा सदियों से यहाँ कई परंपराओं व संस्कृतियों ने जन्म लिया है। आज भी लोग इन परंपराओं व संस्कृतियों में उतना ही विश्वास रखते हैं जितना कि पहले के लोग रखते थे। लेकिन आज के लोगों व पहले के लोगों में एक फर्क है। इस समय के लोग इन परंपराओं व मान्यताओं  को मानते तो जरूर हैं, लेकिन सिर्फ अपने फायदे के लिए। वे इसे इसलिए मानते हैं क्योंकि इन बातों को उन्हें उनके माता-पिता या परिवार के किसी अन्य बड़े सदस्यों ने बताया था। उनके अनुसार यदि वे इन परंपराओं को नहीं मानें या फिर इनके विरूद्ध जायें , तो परिणाम बहुत ही भयानक होंगे। क्या इन लोगों ने कभी इन मान्यताओं के असली मतलब के बारे में जानने की कोशिश की है? इसके स्रोत तक पहुँचने की कोशिश की है कि आखिर ये परंपरा व मान्यतायें कब और कैसै बनी? इसका आधार क्या है?  इनके लिए तो जो इनके बड़े-बुजुर्गों ने बतला दिया वही उनके लिए सत्य हो गया। हो सकता है कई सारी चीजें उस समय के लिहाज से सही हों, किन्तु आज के समय में इनका कोई मतलब ही न हो। उदाहरण के लिए पहले एक परंपरा थी कि लोग नदी में सिक्के फेंका करते थे, वे ऐसा इसलिए करते थे क्योंकि उस समय के सिक्के ताँबे के बने होते थे तथा ताँबा पानी को शुद्ध करता है। हमारे पूर्वजों ने बड़े सोच- विचार के साथ ये मान्यतायें बनायी थी। किन्तु आज के समय में भी बहुत से लोग सिक्के को नदी में फेंका करते हैं।इन लोगों के अनुसार वे दान करते हैं तथा इनका यह मानना है कि ऐसा करने से उन्हें यश व समृद्धि प्राप्त होगी। इन्होंने कभी इसकी गहराई तक पहुँचने की कोशिश नहीं की तथा न ही यह जानना चाहा कि इससे नुकसान होगा या फायदा। अब इन लोगों को कौन बताने जाए कि आज के जमाने के सिक्के स्टेलनेस स्टील के बने होते हैं तथा इसको फेंकने से पानी और प्रदूषित ही होता  है। इसी प्रकार ऐसी बहुत सी ऐसी परंपरायें व मान्यतायें हैं, जिनका पहले तो महत्व था लेकिन आज के समय में इसका कोई महत्व नहीं है। बल्कि इनमें से कुछ तो आज के समय में हानिकारक साबित हो रहे हैं।
            पिछले कुछ दशकों व शताब्दियों में बहुत से लोगों ने इन परंपराओं का गलत इस्तेमाल भी किया है। जो परंपरायें, मान्यतायें व नियम मनुष्य व प्रकृति के कल्याण के लिए बनाये गये थे, उन्हीं नियमों का सहारा लेकर बहुतों ने अपने ही नियम बना डाले, जिसका कोई अर्थ ही नहीं निकलता तथा इस तरह इन्होंने अंधविश्वास को जन्म दिया, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती गयी। कहते हैं न यदि समाज में इस तरह के अंधविश्वास की तीन-चार बातों को फैला दो, तो लोग अपने आप चालीस बना लेते हैं। कई लोगों ने तो कुछ नियम डर की वजह से बनाये तथा कई ने इसका इस्तेमाल दूसरों को डराने के लिए किया, ताकि उन्हें फायदा मिल सके।
      आज के हमारे भारत देश में ये मान्यतायें लोगों के दिल व दिमाग में इस कदर गढ़ कर गयी हैं कि ये लोग इसके विरूद्ध जाने को तैयार ही  नहीं हैं। बुरा तो तब लगता है जब अशिक्षित लोगों के अलावा पढ़े-लिखे व नौजवान भी इस अंधविश्वास में विश्वास करते हैं। यदि देश के विकास में भागीदारी करने वाला नौजवान ही इन गलत धारणाओं में विश्वास करेगा, तो भला हमारे देश का विकास कैसे सम्भव होगा। नि:संदेह हमें अपने देश की संस्कृतियों व परंपराओं को जानने का पूरा हक है और हमें इसे अपनाना भी चाहिए, लेकिन इसके पहले हमें इसके बारे में पूर्ण जानकारी होनी चाहिए तथा इसके बनने का कारण भी जानना चाहिए। किन्तु हम तो सिर्फ कही-सुनायी बातों पर विश्वास कर लेते हैं और इसे आगे बढ़ा देते हैं। गलत मान्यताओं को मानने वाले कितने ऐसे लोग हैं, जिन्होंने हमारी संस्कृति के सूत्राधार वेदों, पुराणों व उपनिषदों को पढ़ा होगा। जिन्होंने इसे पढ़ लिया है वे ऐसी अंधविश्वास की बाते नहीं करते हैं तथा वे जानते हैं कि कौन सी परंपरा व मान्यता का कहाँ महत्व है तथा कितना महत्व है। मैं मानता हूँ कि बहुत सी परंपरायें ऐसी भी हैं, जिनका आज के समय में भी उतना ही स्थान है जितना कि पहले था।
         यदि हम ऐसे ही ऐसी अंधविश्वास की बातों में विश्वास करते रहे तो इस तरह हम न सिर्फ अपने देश को बल्कि आने वाली पीढ़ी व समाज को भी नुकसान पहुँचायेंगे। हमें इन अंधविश्वास की बातों को त्याग कर वेदों व पुराणों का अध्ययन करना चाहिए तथा अपने देश व संस्कृति को जानना व समझना चाहिए। तभी हम आने वाले समय में पश्चिमी देशों की भ्रातियों को दूर कर पायेंगे कि यहाँ के लोग परंपरावादी व अंधविश्वासी होते हैं तथा उन्हें समझा पायेंगे कि हमारे देश की इन वास्तविक परंपराओं का क्या महत्व है। हमें अपनी सोच बदलनी होगी तथा समय के साथ चलना होगा ताकि हम बाकि देशों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो सकें।

Wednesday, 24 August 2016

कर्त्तव्य की बात

लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन है। अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की ये परिभाषा तो दे दी,  लेकिन क्या हो यदि शासन करने वाली जनता ही, जनता के लिए अपने फर्जों को भूल जाए। यदि आज के समय में हम देखें तो कितने सांसद व विधायक हैं, जो अपने कर्त्तव्यों को समझते हैं। हाँ वे अपने पूरे कार्यकाल में एकाध काम करवा कर वाहावाही जरूर लूट लेते हैं। ये लोग जब चुनाव का समय आता है तो बड़े-बड़े वादे करेंगे कि हम ये करवा देंगे, वो करवा देंगे। लेकिन चुनाव जीत जाने के बाद सारे वादे गायब हो जाते हैं।
  हमारे देश के अधिकाधिक जनप्रतिनिधि सिर्फ वेतनभोगी हैं और वे सिर्फ इसलिए चुनाव लड़ते हैं ताकि वे लाभ उठा सकें। उन्हें जनता और देश की कोई चिंता नहीं होती है। संसद सत्र के दौरन आम आदमी के हितों को लेकर चर्चा हो न हो, लेकिन वेतन बढ़ोत्तरी को लेकर जरूर चर्चा होती है। यही कारण है कि जहाँ 1966 में सांसदों का मासिक वेतन करीब 500रू था, वहीं आज बढ़कर इनका वेतन 50,000 हो गया है और भत्ते इत्यादि को मिलाकर इनका कुल वेतन 1,40,000 है। अभी कुल वेतन बढ़ाने के लिए सांसदों की मांग चल ही रही है। कुछ सांसदों का कहना है कि भारत राष्ट्रमंडल देशों का सदस्य है, लिहाजा सांसदों के वेतन-भत्ते भी उसके सदस्य देशों के अनुरूप होने चाहिए। ये तर्क पेश करने से पहले जरा इन जनता के सेवकों को यह भी तो सोचना चाहिए कि यदि ऐसा है तो भारत की सामाजिक स्थितियाँ, व विकास के कार्यक्रम भी राष्ट्रमंडल देशों की ही तरह होने चाहिए। लेकिन यदि इन्हें इस बात की चिंता होती तो आज हमारे देश में  गरीबी की समस्या कम हुयी होती, देश विकास के पथ पर प्रगतिशील होता और लगभग प्रत्येक नागरिकों को रोटी, कपड़ा व मकान जैसी मूलभूत सुविधायें मिलती। किन्तु आज तो परिस्थितियाँ बिल्कुल ही इसके विपरीत हैं।
      इस तरह हम कैसे कह सकते हैं कि मौजूदा लोकतंत्र हमारे देश व जनता के लिए लाभदायक है। जिन महान क्रातिंकारीयों व महापुरूषों ने इस देश को आजाद कराया, वो ऐसा भारत तो कदापि नहीं चाहते थे। भले ही भारत का लोकतंत्र दुनिया के बड़े लोकतंत्रों में गिना जाता हो, लेकिन यहाँ इस शब्द के नाम पर सिर्फ मजाक होता है और बहुत से सेवक इसका अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसा मुश्किल से ही होता है कि ये जनप्रतिनिधि जनता की समस्यायों को वास्तविक रूप से हल करते हैं। ये कैसा जनता का शासन है, जहाँ जनता ही अपनी बात जनप्रतिनिधियों के सामने रख नहीं सकती, जहाँ आम आदमी बामुश्किल ही कुछ कह पाता है और यदि उसने कुछ कहा भी तो ये  कोई जरुरी नहीं कि उसकी समस्यायें हल ही हो जाएँ।

Wednesday, 17 February 2016

लोकतंत्र - कौन, किसके लिए, कैसे

लोकतंत्र क्या हर मायने में सही है ? हमें इस पर विचार करना चाहिए, क्योंकि इससे हमारे देश व समाज का भविष्य जुड़ा हुआ है। यह जरुरी है कि किसी देश में शासन जनता के द्वारा होना  चाहिए, लेकिन क्या  यह जरुरी नहीं कि शासन करने वाला समझदार हो, ईमानदार हो अपने नागरिकों की सेवा करने वाला हो ?
  यहाँ तो आलम यह है कि किसी को भी चुनाव में टिकट मिल जाता है भले ही उसकी देश, दुनिया, अर्थव्यवस्था इत्यादि के बारे में जानकारी शून्य हो। सबसे शर्म की बात तो यह है कि कुछ मूर्ख लोग जातिवाद तथा अन्य कारणों से इन्हें वोट देते हैं और ये सभी नेता सत्ता में आ जाने के बाद हम सभी को मूर्ख बनाते हैं । ऐसे नेता वास्तव में देश के लिए कुछ करना नहीं चाहते बल्कि वे तो अपने स्वार्थ के लिए यहाँ पर आते हैं। यही लालची भ्रष्टाचार करते हैं तथा हमारे देश की अर्थव्यवस्था व नाम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खराब करते हैं।
      इस समय देश की जिम्मेदारी हम युवाओं के कंधे पर है क्योंकि यदि  हम आगे बढ़ेंगे तभी दूसरे लोग भी हमसे सीखेंगे तथा फिर वे भी अपना कदम बढ़ायेंगे। हमें ही लोकतंत्र की नयी परिभाषा को तय करना होगा तथा यह बताना होगा कि लोकतंत्र में कौन शासन करते हैं, किसके लिए शासन करते हैं तथा कैसे शासन करते हैं।
यहाँ पर तो ये पैसों के भूखे लोग पैसों के लिए ही सबकुछ करते हैं। उनके लिए तो राजनीति बस एक खेल है, जिसमें उनका मन भी लगा रहता है और आमदनी भी होती रहती है। उन्हें इस देश व जनता की कोई परवाह नहीं होती है, वे हमें बस एक माध्यम बना कर इस्तेमाल करते हैं। बेशक कुछ राजनेताओं ने अपनी प्रतिभा से देश के विकास में मदद की है तथा अभी भी कुछ ऐसे लोग हैं जो ईमानदार व देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के लिए पूर्ण रुप से समर्पित हैं।  लेकिन इनके सभी बातों को स्वीकार नहीं किया जाता क्योंकि इनके ऊपर भी कुछ महान लोग हैं जो अपने फायदे के लिए गलत कार्य करते हैं।
     इन सब के उपाय के लिए हमें एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना चाहिए जिसमें सबको चुनाव लड़ने की आजादी न हो , चुनाव सिर्फ वही लड़ सके जिसे आर्थिक, सामाजिक व विकास की विभिन्न नीतियों के बारे में पूर्ण जानकारी हो। इसके लिए हमें इनकी परीक्षा ली जानी चाहिए जो कि प्रायोगिक हो। जैसे कि इन्हें टिकट देने से पहले किसी क्षेत्र में भेजकर कोई task पूरा करने के लिए दिया जाना चाहिए और यदि वह उसमें सफल होता है तभी उसे चुनाव लड़ने हेतु योग्य माना जाएगा। जब हम IAS, PCS के लिए परीक्षा ले सकते हैं तो फिर इनके लिए क्यों नहीं, आखिर ये उनसे ऊपर हैं।