Thursday 25 August 2016

अंधविश्वास में विश्वास

हमारे भारत को विश्व के प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक माना जाता है तथा सदियों से यहाँ कई परंपराओं व संस्कृतियों ने जन्म लिया है। आज भी लोग इन परंपराओं व संस्कृतियों में उतना ही विश्वास रखते हैं जितना कि पहले के लोग रखते थे। लेकिन आज के लोगों व पहले के लोगों में एक फर्क है। इस समय के लोग इन परंपराओं व मान्यताओं  को मानते तो जरूर हैं, लेकिन सिर्फ अपने फायदे के लिए। वे इसे इसलिए मानते हैं क्योंकि इन बातों को उन्हें उनके माता-पिता या परिवार के किसी अन्य बड़े सदस्यों ने बताया था। उनके अनुसार यदि वे इन परंपराओं को नहीं मानें या फिर इनके विरूद्ध जायें , तो परिणाम बहुत ही भयानक होंगे। क्या इन लोगों ने कभी इन मान्यताओं के असली मतलब के बारे में जानने की कोशिश की है? इसके स्रोत तक पहुँचने की कोशिश की है कि आखिर ये परंपरा व मान्यतायें कब और कैसै बनी? इसका आधार क्या है?  इनके लिए तो जो इनके बड़े-बुजुर्गों ने बतला दिया वही उनके लिए सत्य हो गया। हो सकता है कई सारी चीजें उस समय के लिहाज से सही हों, किन्तु आज के समय में इनका कोई मतलब ही न हो। उदाहरण के लिए पहले एक परंपरा थी कि लोग नदी में सिक्के फेंका करते थे, वे ऐसा इसलिए करते थे क्योंकि उस समय के सिक्के ताँबे के बने होते थे तथा ताँबा पानी को शुद्ध करता है। हमारे पूर्वजों ने बड़े सोच- विचार के साथ ये मान्यतायें बनायी थी। किन्तु आज के समय में भी बहुत से लोग सिक्के को नदी में फेंका करते हैं।इन लोगों के अनुसार वे दान करते हैं तथा इनका यह मानना है कि ऐसा करने से उन्हें यश व समृद्धि प्राप्त होगी। इन्होंने कभी इसकी गहराई तक पहुँचने की कोशिश नहीं की तथा न ही यह जानना चाहा कि इससे नुकसान होगा या फायदा। अब इन लोगों को कौन बताने जाए कि आज के जमाने के सिक्के स्टेलनेस स्टील के बने होते हैं तथा इसको फेंकने से पानी और प्रदूषित ही होता  है। इसी प्रकार ऐसी बहुत सी ऐसी परंपरायें व मान्यतायें हैं, जिनका पहले तो महत्व था लेकिन आज के समय में इसका कोई महत्व नहीं है। बल्कि इनमें से कुछ तो आज के समय में हानिकारक साबित हो रहे हैं।
            पिछले कुछ दशकों व शताब्दियों में बहुत से लोगों ने इन परंपराओं का गलत इस्तेमाल भी किया है। जो परंपरायें, मान्यतायें व नियम मनुष्य व प्रकृति के कल्याण के लिए बनाये गये थे, उन्हीं नियमों का सहारा लेकर बहुतों ने अपने ही नियम बना डाले, जिसका कोई अर्थ ही नहीं निकलता तथा इस तरह इन्होंने अंधविश्वास को जन्म दिया, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती गयी। कहते हैं न यदि समाज में इस तरह के अंधविश्वास की तीन-चार बातों को फैला दो, तो लोग अपने आप चालीस बना लेते हैं। कई लोगों ने तो कुछ नियम डर की वजह से बनाये तथा कई ने इसका इस्तेमाल दूसरों को डराने के लिए किया, ताकि उन्हें फायदा मिल सके।
      आज के हमारे भारत देश में ये मान्यतायें लोगों के दिल व दिमाग में इस कदर गढ़ कर गयी हैं कि ये लोग इसके विरूद्ध जाने को तैयार ही  नहीं हैं। बुरा तो तब लगता है जब अशिक्षित लोगों के अलावा पढ़े-लिखे व नौजवान भी इस अंधविश्वास में विश्वास करते हैं। यदि देश के विकास में भागीदारी करने वाला नौजवान ही इन गलत धारणाओं में विश्वास करेगा, तो भला हमारे देश का विकास कैसे सम्भव होगा। नि:संदेह हमें अपने देश की संस्कृतियों व परंपराओं को जानने का पूरा हक है और हमें इसे अपनाना भी चाहिए, लेकिन इसके पहले हमें इसके बारे में पूर्ण जानकारी होनी चाहिए तथा इसके बनने का कारण भी जानना चाहिए। किन्तु हम तो सिर्फ कही-सुनायी बातों पर विश्वास कर लेते हैं और इसे आगे बढ़ा देते हैं। गलत मान्यताओं को मानने वाले कितने ऐसे लोग हैं, जिन्होंने हमारी संस्कृति के सूत्राधार वेदों, पुराणों व उपनिषदों को पढ़ा होगा। जिन्होंने इसे पढ़ लिया है वे ऐसी अंधविश्वास की बाते नहीं करते हैं तथा वे जानते हैं कि कौन सी परंपरा व मान्यता का कहाँ महत्व है तथा कितना महत्व है। मैं मानता हूँ कि बहुत सी परंपरायें ऐसी भी हैं, जिनका आज के समय में भी उतना ही स्थान है जितना कि पहले था।
         यदि हम ऐसे ही ऐसी अंधविश्वास की बातों में विश्वास करते रहे तो इस तरह हम न सिर्फ अपने देश को बल्कि आने वाली पीढ़ी व समाज को भी नुकसान पहुँचायेंगे। हमें इन अंधविश्वास की बातों को त्याग कर वेदों व पुराणों का अध्ययन करना चाहिए तथा अपने देश व संस्कृति को जानना व समझना चाहिए। तभी हम आने वाले समय में पश्चिमी देशों की भ्रातियों को दूर कर पायेंगे कि यहाँ के लोग परंपरावादी व अंधविश्वासी होते हैं तथा उन्हें समझा पायेंगे कि हमारे देश की इन वास्तविक परंपराओं का क्या महत्व है। हमें अपनी सोच बदलनी होगी तथा समय के साथ चलना होगा ताकि हम बाकि देशों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो सकें।

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