जब हमारे ऊपर जिम्मेदारीयां आती हैं, तब हमें कुछ चीजों से समझौता करना पड़ता है। कठिन समय में हमें अपने घरवालों का साथ देना होता है, जरूरत पड़ने पर उनका खयाल रखना होता है। लेकिन जब धीरे-धीरे परिस्थितियाँ बिगड़ने लगे तब क्या होता है ? क्या हम वैसे ही रह पाते हैं जैसे हम पहले थे ? क्या समझौते की ग्लानि हमें अंदर ही अंदर कचोटती नहीं रहती है ? भले ही हमारे अंदर एक तरह के समझौते की ग्लानि हो, लेकिन हम इस बात से नहीं भाग सकते कि ये समझौता भी किसी ऐसे के लिए था जिसे ना करने पर हम एक और ग्लानि का शिकार हो जाते।
कुछ ऐसी ही परिस्थितियों के आस-पास घूमती है, शीतल मेनन द्वारा निर्देशित शाॅर्ट फिल्म 'Siblings'। दो बहनें कोमा में जा चुके अपने पिता की देखभाल करती हैं। दोनों बहनों के साथ में उनकी दादी भी हैं, जिनकी देखभाल करना भी उतना ही जरूरी है। एक बहन बाहर जाॅब करती है, तो वहीं दूसरी बहन घर से बैठकर अपने start-up के लिए काम करती है। धीरे-धीरे पैसों की होती कमी, boyfriend का छोड़ कर चला जाना और काम का सही ढंग से ना हो पाना। इन सभी परेशानियाें का दोनों बहने सामना करती हैं और फिर आगे चलकर कभी खर्चे को लेकर लड़ाईयां होने लगती हैं, तो कभी responsibilities को लेकर। दादी हर लड़ाई को मूक दर्शक बन कर देख रही होती हैं और अंत में सब सही कर देती हैं। लेकिन सब सही करने के बाद भी उनके मन में एक गहरा दुःख होता है।
शीतल मेनन की इस फिल्म में त्याग है, प्रेम है, जिम्मेदारीयां हैं, समझौता है, झुंझलाहट है, मजबूरी है, अवसाद है, व भावनाओं का एक पूरा सागर है। इस तरह की परिस्थितियों का सामना हममें से बहुतों ने किया होगा और हम जान सकते हैं ये कितना मुश्किल है। शीतल मेनन ने इस फिल्म के माध्यम से किसी परिवार की आंतरिक परेशानियों को बखूबी प्रदर्शित किया है। फिल्म के स्क्रीनप्ले व संवाद भावनाओं को बहुत अच्छे से उकेरते है़ं। कुछ सीन्स बिना किसी संवाद के बहुत कुछ कह जाते हैं, और मैं इसे शार्ट फिल्मों की खासियत समझता हूं। यहां दृश्य व चेहरे के हाव-भाव सब कुछ बता देते हैं। इस फिल्म में बस एक चीज की कमी खलती है और वो है संगीत। यदि इस फिल्म में संगीत होता, तो थोड़ा सा गहरापन और आ जाता।
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