Sunday 17 November 2019

आंतरिक व बाह्य संघर्षों की कार्यस्थली : मसान



'मसान' एक ऐसी जगह जहाँ जाना तो कोई नहीं चाहता, लेकिन एक न एक दिन जाना सभी को पड़ता है। चारों तरफ जलती लाशें और उन लाशों में से सुनायी देती खोपड़ियों की फटती हुयी आवाजें। बड़ा ही भयानक मंजर होता है उनके लिए, जिसने आज तक कभी ये सब देखा नहीं है। लेकिन वहाँ पर कुछ ऐसे भी हैं, जिनके लिए यही लाशें उनकी रोजी-रोटी का आधार हैं, उनके जीने का जरिया हैं। मसान ही उनकी कार्यस्थली है, जहाँ वे दूसरों के मुक्त होने की प्रक्रिया में अपना योगदान निभाते हैं। जीवन, कर्म और मृत्यु इन्हीं तीनों के चारों ओर बुनी गयी है नीरज घेवान द्वारा निर्देशित फिल्म 'मसान' की कहानी। जहाँ पर 'मसान' स्वयं एक भूमिका अदा करता है। 
      
            फिल्म दो किरदारों की कहानियों को साथ लेकर चलती है। पहली कहानी एक लड़की देवी की है, जो अपनी कुछ परिस्थितियों की वजह से एक भ्रष्ट पुलिसवाले का शिकार बन जाती है। देवी और उसके साथी को पुलिस एक होटल में पकड़ती है और उनके साथ बुरा व्यवहार करती है। लड़का घबराकर सुसाइड कर लेता है और एक भ्रष्ट पुलिसवाला इस बात को लेकर देवी व उसके पिता को ब्लैकमेल करता है। दूसरी कहानी एक निम्मनवर्गीय लड़के दीपक की है, जिसका परिवार घाटों पर मुर्दा जलाने का काम करता है। दीपक एक उच्च जाति की लड़की शालू से प्रेम कर बैठता है और डर की वजह से लड़की को अपनी सच्चाई नहीं बताना चाहता। लेकिन जब लड़की सच्चाई जानती है, तो उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो कौन है, किस जाति का है, कहाँ रहता है ? इससे प्रेम का असल रूप चरितार्थ होता है। दीपक को धक्का तब लगता है, जब एक दुर्घटना में शालू की मौत हो जाती है और उसका मृत शरीर दीपक ही जला रहा होता है। 

          इस फिल्म में एक पिता की अपनी बेटी को बचाने की जद्दोजहद, एक बेटी की अपने पिता की नजरों में खुद को सही साबित करने की कोशिश, दो लोगों के बीच प्रेम और अपने प्रेमी के खो जाने के गहरे दु:ख की निराशा है। इसके साथ-साथ खुद को परिस्थितियों से निकालकर आगे बढ़ने का संघर्ष भी है।
        दोनों कहानियों की पृष्ठभूमि बनारस है, जो किरदारों और घटनाओं को बिल्कुल करीब से महसूस कराती है। फिल्म के कुछ सीन्स ऐसे हैं जो हमारे अंदर सिरहन पैदा करते हैं। जैसे घाटों पर जलती हुयी लाशों का दृश्य जहाँ पर जीवन, कर्म और मृत्यु तीनों को एक साथ देखा जा सकता है। इस फिल्म में किसी इंसान के आंतरिक और बाह्य दोनों तरह के संघर्षों को बड़ी बखूबी से पर्दे पर उतारा गया है। दोनों कहानियाँ भले ही अलग-अलग चल रही होती हैं, लेकिन वो कहना एक ही बात चाहती हैं। फिल्म के अंत में दोनों किरदारों और कहानियों का संगम पर मिलन होता है और संगम का ये दृश्य भी कुछ कह रहा होता है। जो कि अंतिम गीत 'भोर' के माध्यम से सुनायी देता है। 

         इस फिल्म में हर एक किरदार अपनी प्रबल छाप छोड़ता है। संजय मिश्रा ने एक मध्यमवर्गीय परिवार के पिता के रूप में खुद को बहुत अच्छे से व्यक्त किया है और अपनी अदाकारी के गुण को साबित किया है। देवी के किरदार में रिचा चड्ढा ने पूरी ईमानदारी दिखायी है और विकी कौशल का अभिनय लाजवाब है, खासकर दो-तीन सीन्स में तो उन्होंने बहुत ही उम्दा लेवल की अदाकारी की है। वरूण ग्रोवर के लिखे गये शब्दों में जादू है, वो एक अलग तरह के दार्शनिकता का अहसास कराते हैं। इस फिल्म के सभी गीत और 'इंडियन ओसियन' का संगीत फिल्म के साथ जुड़ाव को और भी गहरा करता है।

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