हम जब कभी भी ट्रेन से यात्रा कर रहे होते हैं तो क्या हम कभी उन जंक्शनों के बारे में विचार करते हैं जहाँ हमारी गाड़ियाँ थोड़ी देर के लिए रूकती हैं, आराम करती हैं और जहाँ से हम दूसरे स्थानों पर जाने के लिए अपनी ट्रेनें बदलते हैं। हमारे लिए तो वो सिर्फ एक स्टेशन होते हैं जहाँ से और भी दूसरे जगहों पर जाया जा सकता है। हम कभी भी उस जंक्शन के बाहर की कल्पना भी नहीं करते कि एक शहर या कस्बे के रूप में उसका अस्तित्व कैसा होगा ? ये जंक्शन हमारी यात्रा का सिर्फ एक महत्वपूर्ण पड़ाव भर होते हैं और कुछ भी नहीं।
बिश्वनाथ घोष द्वारा लिखी गयी किताब “चाय-चाय” हमें इन्हीं जंक्शनों की यात्रा पर ले जाती है जो शहर के लिहाज से तो उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, लेकिन रेलवे के नजरिये से ये स्थान अपनी बहुत ही महत्वपूर्ण पहचान रखते हैं। रेलवे के ये जंक्शन भारत के एक कोने को दुसरे कोने से जोड़ते हैं। यदि ये जंक्शन ना हों तो रेलवे के द्वारा हम चारों ओर जाने की सोच भी नहीं सकते। इन जंक्शनों का जिक्र करते हुए लेखक कहते हैं कि कोई इन स्टेशनों की रेल की पटरियों को उड़ा दे तो सारा देश कई दिनों के लिए अव्यवस्था में डूब जाये। मुगलसराय, झाँसी, इटारसी, गुंटकल, अरक्कोनम और जोलारपेट्टई कुछ ऐसे ही जंक्शन हैं जिनकी यात्राओं का वर्णन इस किताब में किया गया है। इसके इतर इसमें ऐसी जगहों की यात्राएँ भी शामिल हैं जिन्हें हम ऐतिहासिक व धार्मिक कारणों से जानते हैं जैसे बनारस, खजुराहो। किताब को पढ़ते वक़्त हम स्वयं भी लेखक के माध्यम से इन सभी जगहों की यात्रा कर रहे होते हैं।
इस किताब में लेखक ने इन स्थानों के इतिहास का तो वर्णन किया ही है इसके साथ ही साथ वहां पर गुजारे हुए दिनों के अपने कुछ निजी अनुभवों को भी साझा किया है। इसके अलावा इसे पढ़ते वक़्त हमें अनेक संस्कृतियों, भिन्न बोली, भिन्न खान-पान व अलग-अलग विचारों वाले लोगों से मिलने का मौका मिलता है तथा उनके अनेक मानवीय पहलुओं के बारे में पता चलता है। लेखक ने यात्रा के दौरान जिन-जिन लोगों से बातें की हैं उन सभी की अपनी कहानीयां हैं जो उनके अपने सामाजिक पक्ष को दर्शाती है। लेखक ने बेशक उनकी बातों व विचारों को हम सब के सामने रखने की कोशिश की है। कई जगहों पर कुछ रोचक इतिहास की बातें भी शामिल हैं, जैसे इटारसी की एक धर्मशाला का जिक्र है जहाँ पर महात्मा गांधी ने 1933 में एक रात गुजारी थी और इसी धर्मशाला में उनके द्वारा सरदार पटेल को लिखे एक पत्र का उल्लेख भी है।
इस किताब को पढ़ने के बाद हम स्वयं एक बात का अनुभव करते हैं कि अपने आस-पास की छोटी चीजों, जगहों, अनजान व सामान्य लोगों से भी बहुत बड़ी बातें निकल कर आ सकती हैं, बस जरूरत है थोड़ा गौर करने की और खुलकर बात करने की। ये किताब चीजों को एक अलग तरीके से देखने का नजरिया प्रदान करती है। हमें यात्राएँ करती रहनी चाहिए भले ही वो कहीं की भी यात्रा हो। ये इस बात पर निर्भर नहीं करता कि वो स्थान ज्यादा प्रचलित है या फिर नहीं। लेखक के ही शब्दों में यात्राएँ सिर्फ समानता नहीं लाती, बल्कि एक-दुसरे की संस्कृतियों खासकर खाने की आदतों से भी परिचित करवाती हैं।
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