एक समय था, जब कुछ नहीं था। ना जीव, ना पेड़ पौधे और ना ही रोशनी। फिर शुरूआत हुयी जीवन की। पेड़-पौधे आये, जानवर आये, मनुष्य आये। हम मनुष्यों ने जीना सीखा, रहना सीखा, खेती करना सीखा और उन सभी चीजों को सीखते गये; जिसकी हमें जरूरत थी। धीरे-धीरे हममें बदलाव आता गया और हम आगे बढ़ते रहे। बदलाव के इस चरण में हमारी बुद्धि का भी विकास होता रहा और आस-पास के चीजों को समझने की हमारी समझ बढ़ती गयी। हमने प्रकृति को अपने हिसाब से बदलना शुरू किया या फिर ऐसा कह लें, उसका इस्तेमाल करना शुरू किया। फिर हमारी बुद्धि और भी खुली। हमने लोगों का समूह बनाया और फिर शुरू हुआ बँटवारे का खेल।
लोगों द्वारा बनाये गये समूहों ने अलग-अलग इलाकों पर कब्जा करना शुरू किया और 'अधिकार' की उत्पत्ति हुयी। इस 'अधिकार' ने न जाने कितने शब्दों को जन्म दिया - 'युद्ध', 'लालच', 'घृणा' , 'छल' और भी ऐसे बहुत से शब्द। चीजें बदलती रहीं, वक्त बदलता रहा और सबसे बड़ी बात हम मनुष्यों के विचार बदलते रहे। इन बदलते हुए विचारों के परिणाम स्वरूप कुछ ने 'उत्पत्ति' का रहस्य जानना चाहा, वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों ने अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए साधन ढूँढने शुरू कर दिये। इन दोनों ही तरह के लोगों ने अपने-अपने क्षेत्रों में कामयाबी पायी। पहले ने साक्ष्य ढूँढे, समय और परिवर्तन का विश्लेषण किया और फिर कुछ नियम बनाये और नियमों को आने वाली पीढ़ियों को सौंपा। जिन लोगों को ऐसा लगता था कि उन्हें अपने अस्तित्व को बचाये रखना है, उन लोगों ने नींव डाली नए मान्यताओं की, नए धर्मों की। ऐसा नहीं है कि इन लोगों ने नियम नहीं बनाये, नियम तो इन लोगों ने भी बनाये। लेकिन इसका इस्तेमाल बाकी लोगों को डराने के लिए किया गया, अपनी साख को बचाये रखने के लिए किया गया। कहीं ना कहीं इन मान्यताओं और धर्मों की जरूरत भी थी, क्योंकि सबके विचार एक जैसे नहीं थे। ये धर्म उन लोगों के बड़े काम आये, जो जिज्ञासु प्रवृत्ति के नहीं थे। इन सब के बीच भाषा और शैली ने भी अपनी-अपनी भूमिकायें निभायीं।
वक्त ने फिर अपनी रफ्तार पकड़ी और परिवर्तन की आँधी एक बार फिर जोरों से चली। हम अब पूरी तरह से बदल चुके थे। जिस धर्म की शुरूआत, लोगों के अस्तित्व को बचाये रखने के लिए की गयी थी, उसी धर्म ने लोगों के अस्तित्व को खतरे में डालना शुरू कर दिया। लोग धर्म को लेकर लड़ने लगे, सब ने अपने-अपने धर्मों को महान बताना शुरू किया। अब मनुष्य सिर्फ दो प्रकार के नहीं रह गये थे। इस बदलाव ने अलग-अलग तरह के लोगों को जन्म दिया। पहले दो तरह के लोग तो अब भी मौजूद थे। लेकिन इसके अलावा कुछ और तरह के लोग भी आये। जैसे कि वे, जिसे सिर्फ दूसरे लोगों पर राज करना था, दूसरे वे जिन्हें केवल धन का मोह था। इन लोगों का ना ही धर्म के प्रति कोई आदर था और ना ही ये जिज्ञासु थे।
समय के साथ-साथ परिवर्तन की गति बढ़ती ही जा रही थी और हमने उसी दर के साथ विकास भी किया। हमने अपनी सुविधाओं के लिए बहुत सी वस्तुओं का निर्माण किया और प्रकृति का पूर्ण दोहन किया। हमने मशीने बनायीं, पूरी पृथ्वी को खत्म करने वाले हथियार बनाये, जंगलों को काटकर बिल्डिंगें बनायी। प्रकृति ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी, लेकिन हममें से कुछ भले मानुषों को कहाँ समझ आने वाला था। प्रकृति को तबाह करने का काम उसी तरह चलता रहा।
तब से लेकर अब तक हम बहुत बदल चुके हैं, बहुत ही ज्यादा। आज हम पूरी तरह से ही मशीनों पर निर्भर है। हालात ऐसे हैं, हमारे चारों तरफ प्रकृति से ज्यादा मानव निर्मित वस्तुएँ उपलब्ध हैं। आज हम एक ऐसे संसार में रह रहे हैं, जहाँ लोग सच से ज्यादा झूठ पर यकीन करते हैं। यहाँ पर विश्वास से ज्यादा अंधविश्वास है। अब तो लोग धर्म के नाम पर पूरी पृथ्वी को तबाह करने के लिए आतुर हैं।