Sunday 5 March 2017

खगोलविज्ञान व गणित के महान पंडित : आर्यभट्ट




हमारे देश भारत में कई महान वैज्ञानिकों ने जन्म लिया है। इन्हीं महान वैज्ञानिकों में से एक नाम आर्यभट्ट का भी है। मूलत: हम सब इन्हें शून्य की खोज के लिये जानते हैं। शून्य की खोज के अलावा आर्यभट्ट ने खगोलविज्ञान और गणित के कई सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था। जिसकी वजह से वे विश्व के महानतम वैज्ञानिकों में से एक बन गये। बहुत से लोगों का यह मानना है कि सूर्य व पृथ्वी के बीच सही संबंधों को बतलाने वाला पहला व्यक्ति निकोलस कापरनिकस था। लेकिन आर्यभट्ट ने निकोलस कापरनिकस के जन्म के कई वर्ष पूर्व ही सूर्य व पृथ्वी के इन संबंधों को दुनिया के सामने रखा। इसके अलावा इन्होंने यह भी बतलाया कि चन्द्रमा और पृथ्वी जैसे दूसरे ग्रह अपने स्वयं के  प्रकाश से नहीं बल्कि सूर्य के प्रकाश से चमकते हैं। हिन्दू धर्म के सूर्य व चन्द्र ग्रहण की पुरानी मान्यताओं को भी आर्यभट्ट ने गलत सिद्ध किया।
             आर्यभट्ट का जन्म 476 में कुसुमपुर में हुआ था। जो कि आज के समय के पटना के रूप में जाना जाता है। हालांकि उनके जन्म स्थान को लेकर विवाद भी रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि आर्यभट्ट का जन्म अश्मक (महाराष्ट्र) में हुआ था और वे कुसुमपुर शिक्षा ग्रहण करने के लिये आये थे। जबकि कुछ लोग कुसुमपुर को ही उनका जन्म स्थान मानते हैं। आर्यभट्ट ने खगोलविज्ञान व गणित से संबंधित कई ग्रंथों की रचना की। जैसे - आर्यभट्टीयम्, दशगीतिका, आर्यभट्ट सिद्धांत और तंत्र। उन्होंने इन सभी ग्रंथों की रचना काव्य के रूप में की थी।
   
          आर्यभट्ट द्वारा लिखे गये ग्रंथों में से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ आर्यभट्टीयम् है। इस ग्रंथ में खगोलशास्त्र, अंकगणित, बीजगणित और त्रिकोणमिति के कई नियम दिये गये हैं। आर्यभट्टीयम् को कभी-कभी आर्य-शत-अष्ट के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस ग्रंथ के पाठों में छंदो की संख्या 108 है। इस ग्रंथ में वर्गमूल  (square root), घनमूल  (cube root), समानान्तर श्रेणी ( Arithmetic Progression ) के साथ-साथ सतत भिन्न (Continued Function), द्विघात समीकरण (Quadratic Equation), Table of sines, घात श्रंखला के योग (Sums of power series) तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन मिलता है। इस पूरे ग्रंथ में 108 छंद है तथा इसे चार अध्यायों में विभाजित किया गया है। ये चार अध्याय गीतिकपाद, गणितपाद, कालक्रियापाद व गोलापद है। इन चारों अध्यायों में कल्प, युग, ज्यामितिक प्रगति, ग्रहों की स्थिति निर्धारण करने की विधि, पृथ्वी के आकार, दिन और रात के कारण जैसी अनेकों महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी गयी हैं। इस ग्रंथ की एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि ये ग्रंथ आज के आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है।
           आर्यभट्ट के द्वारा लिखा हुआ एक और ग्रंथ आर्यभट्ट सिद्धांत है। यह ग्रंथ खगोलीय गणनाओं के विषय में है। इस ग्रंथ का सातवें शतक में व्यापक उपयोग होता था, लेकिन अब यह ग्रंथ बिल्कुल लुप्त हो चुका है और इस समय इस ग्रंथ के केवल 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं। आज इसके बारे में हमें जो कुछ भी जानकारी मिल पायी है, वह आर्यभट्ट के समकालीन रह चुके वराहमिहीर के लेखनों से या फिर उनके बाद के गणितज्ञों जैसे ब्रह्मगुप्त और भाष्कर प्रथम के कार्यों से ही मिल पायी है। इनके लेखनों से हमें यह पता चलता है कि इसमें पुराने सूर्य सिद्धांतों पर आधारित कार्यों का वर्णन है। इस लुप्त हुए ग्रंथ में अनेक खगोलीय उपकरणों के शामिल होने की भी जानकारी मिलती है। जैसे कि यस्ती यन्त्र (बेलनाकार छड़ी), शंकु यन्त्र, छाया यन्त्र, धनुर यन्त्र, एक छत्र आकार का उपकरण जिसे छत्र यन्त्र कहा जाता है। इसमें धनुषाकार व बेलनाकार जल घड़ियों का भी उल्लेख मिलता है।
            अरबी भाषा में लिखा गया एक ग्रंथ अल नत्फ को आर्यभट्ट के ही किसी ग्रंथ का अनुवाद माना जाता है। परन्तु इसका संस्कृत नाम अभी तक अज्ञात है। शायद नौवीं सदी के अभिलेखन में यह फारसी विद्वान व भारतीय इतिहासकार अबू रेहान अल बिरूनी द्वारा उल्लेखित किया गया है।
        नालंदा विश्वविद्यालय से तो हम सभी परिचित हैं। ये उस समय अपनी शिक्षण व्यवस्था के लिये पूरे विश्व में विख्यात था। मगध स्थित इस विश्वविद्याल में सुदुर देश-विदेश के विद्यार्थी यहाँ शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते थे। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार ऐसा माना जाता है कि आर्यभट्ट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके थे।
    आर्यभट्ट ने उस समय बिना किसी आधुनिक उपकरणों की सहायता से पृथ्वी की परिधि का मान बिल्कुल सही-सही बताया। जिसमें आज के समय के अनुसार सिर्फ 65 मील की ही अशुद्धि है। उन्होंने पृथ्वी के घूमने के हिसाब से समय को विभाजित किया। इन्होंने सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग व कलयुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग और एक महायुग में चार युग सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग व कलयुग होते हैं। आर्यभट्ट ने पाई (pi) के सन्निकट मान पर भी कार्य किया। आर्यभट्टीयम् के दूसरे भाग में उन्होंने किसी वृत्त की परिधि और व्यास का अनुपात ज्ञात किया है और उन्होंने इसका मान 3.1416 बतलाया है। जो कि पाई के आज के ज्ञात मान से बिल्कुल मिलता है।
          आर्यभट्ट द्वारा किये गये कार्यों ने कई पड़ोसी संस्कृतियों को भी प्रभावित किया। इस्लामी स्वर्ण युग (820 ई•) के दौरान उनके ग्रंथों का अरबी अनुवाद किया गया। आर्यभट्ट की खगोलीय गणना की विधियाँ भी बहुत ही प्रभावशाली थी। उनके द्वारा बनायी गयी त्रिकोणमिति तालिकाओं का प्रयोग इस्लाम में अरबी खगोलीय तालिकाओं जिन्हें जिज के नाम से जाना जाता है की गणना के लिए इस्तेमाल किया जाता था। हम कह सकते हैं कि आर्यभट्ट ने पूरी दुनिया को ब्रह्माण्ड के गूढ़ रहस्यों को समझने के लिये एक दिशा दे दी। उनके द्वारा बनाये गये नियमों को कई संस्कृतियों ने अपनाया। उनके इन उत्कृष्ट कार्यों को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। लेकिन फिर भी आज हम उनके कुछ ग्रंथों को बचा नहीं पाये हैं।
         आर्यभट्ट के सम्मान में ही भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा गया। खगोल विज्ञान और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिये भारत में नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान उन्हीं के नाम पर रखा गया है। बैसिलस आर्यभट्ट यह इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा खोजी गयी बैक्टीरिया की एक प्रजाति का नाम है जो कि आर्यभट्ट के नाम पर ही रखा गया है।

                                                                                                ( फोटो -  विकिपीडिया )