Thursday, 12 January 2017

शिक्षा - ज्ञान का माध्यम या जीवन-यापन की जरूरत

आज के इस वर्तमान समय में शिक्षा के मायने ही बदल गये हैं। लोग तो बस यही सोचते हैं कि वो पढ़-लिख लें, ताकि एक अच्छी सी नौकरी मिल जाये और जिन्दगी की नईया को काटने में कोई तकलीफ व परेशानी न हो। पहले शिक्षा जहाँ ज्ञान प्राप्ति का साधन था, वहीं आज ये नौकरी पाने का एक जरिया भर बन कर रह गया है। आजकल बहुत से लोग इसलिए शिक्षित, नहीं होना चाहते क्योंकि उनकी किसी विशेष विषय में रूचि है या वे उसके बारे में जानना चाहते हैं, बल्कि वो तो बस इसलिए शिक्षित होते हैं क्योंकि वे अपने भविष्य को सुरक्षित रखना चाहते हैं। भले ही उनकी अपने पढ़े हुए विषय के बारे में जानकारी न के बराबर हो। ऐसे लोगों के लिए ज्ञान से ज्यादा डिग्री का महत्व होता है। वो तो बस अच्छी से अच्छी डिग्री को हासिल करने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। चाहे इसके लिए  उनको कितने भी रूपये क्यों न देने पड़े हों। अभिवावकों की स्थिति भी यही है, वो भी अपने बच्चों का एडमिशन पैसे-रूपये देकर किसी बड़े काॅलेज में करा देते हैं और सोचते हैं कि एडमिशन होने के बाद तो नौकरी मिल ही जायेगी। नहीं मिली तो फिर रूपये कब काम आयेंगे।
        भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए नौकरी भी जरूरी है, लेकिन शिक्षा का इस कदर मजाक क्यों। क्यों लोग आजकल इसका सिर्फ इस्तेमाल कर रहे हैं ? सिर्फ डिग्रियों को महत्व देने वाले ऐसे लोग जब किसी जगह पर काम करने के लिए जाते हैं, तो वहाँ कि गुणवत्ता को तो प्रभावित करते ही हैं, साथ में अपने आस-पास के वातावरण को भी दूषित करते हैं। यदि ऐसे लोग अध्यापन के क्षेत्र में चले गये, फिर तो पूछना ही नहीं है। सरकारी प्राइमरी व माध्यमिक विद्यालयों का हाल तो हम सबको पता ही है। यहाँ पर शिक्षक पढ़ाने के उद्देश्य से कभी नहीं आते हैं। वे तो बस यहाँ पर आकर किसी भी तरह समय काटते हैं। फिर भी सरकार इन पर करोड़ों रूपये फूँक रही है व इनको तमाम सुविधायें उपलब्ध करा रही है। ऐसे ही लोगों कि वजह से हमारे देश में शिक्षा का स्तर दिनों पर दिन गिरता जा रहा है।
  
        हमारे देश में हर साल हजारों की संख्या में इंजीनियरिंग के स्टूडेंट्स ग्रेजुएट होते हैं, लेकिन इनमें से कितने ऐसे हैं, जिनकी वास्तव में इस क्षेत्र में रूचि होती है। यदि देखा जाए तो यह संख्या बहुत ही कम है। वे इसे या तो इसलिए पढ़ रहे होते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इस कोर्स को पूरा करने के बाद उन्हें एक अच्छी नौकरी मिल जायेगी या यदि वे जानते भी हैं कि उनकी इस क्षेत्र में रूचि नहीं है, फिर भी अभिवावक के दबाव में आकर उन्हें ऐसा करना पड़ता है। परिणाम यह होता है कि कोर्स को पूरा कर लेने के बाद भी वे बेरोजगार होते हैं। यदि ऐसे लोग शिक्षा को नौकरी पाने का जरिया न मानकर ज्ञान प्राप्ति का साधन मानें व उसी क्षेत्र में अपना करियर बनाये, जिनमें उनकी रूचि हो तो कितना अच्छा है। बहुत से लोग पुराने परंपरागत कोर्सों जैसे इंजीनियरिंग, डाॅक्टरी को ही सही मानते है और सोचते हैं कि इसी से भविष्य सुरक्षित रह सकता है। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। संगीत, नृत्य, कला जैसे अलग क्षेत्र भी शिक्षा के ही एक भाग हैं। ऐसा नहीं है कि जिसने B.Tech, MBBS, LLB, PHD किया हो वही शिक्षित हो। अपने क्षेत्र में कुशल होना ही वास्तविक शिक्षा है। चाहे व सामाजिक क्षेत्र हो या फिर कुछ और।
       
     मैंने बहुतों को तो यह कहते भी सुना है कि   जिन्दगी भर पढ़ते व सीखते ही रहोगे क्या। वे यह नहीं जानते कि जीवन पर्यन्त पढ़ते व सीखते रहने से हमारे अपने ही ज्ञान में वृद्धि होगी। सोचिये जरा यदि नौकरी मिल जाने के बाद हम पढ़ना, लिखना और कुछ सीखना छोड़ दें, और जिन्दगी काटते-काटते एक दिन इस दुनिया को अलविदा कह दें तो इसका कोई फायदा है। इससे अच्छा है कि हम रोज कुछ न कुछ पढ़ते व सीखते रहें व इस दुनिया को एक नये नजरिये से देखें व समझें।

Friday, 6 January 2017

रविन्द्र कौशिक- भारत का ब्लैक टाईगर


हमने फिल्मों व कहानियों में कई दफा जासूसों के बारे में देखा व पढ़ा होगा। इन्हें देखकर तो यही लगता है कि इनकी ज़िन्दगी कितनी रोमांचक होती होगी, लेकिन सच्चाई तो कुछ और ही होती है। इनकी ज़िन्दगी में रोमांच तो होता है, लेकिन इसके साथ ही हर वक्त, हर पल मौत का सायां इनके साथ-साथ चलता रहता है। ऐसे ही एक भारतीय जासूस थे, रविन्द्र कौशिक। जिन्होंने देश के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर दी। 
       रविन्द्र कौशिक का जन्म राजस्थान के श्रीगंगानगर में 11 अप्रैल, 1952 को हुआ था और वो यहीं पर पले-बढ़े। रविन्द्र को बचपन से ही एक्टिंग का शौक था। स्कूल के दिनों में वो दूसरे लोगों की नकल(mimicry) बड़े ही अच्छे ढंग से किया करते  थे, जिसके चलते वो अपने पूरे स्कूल में चर्चित थे। वे अपने ख्वाब को पूरा करते हुए आगे चलकर एक थियेटर आर्टिस्ट भी बने। ऐसे ही जब वो एक बार लखनऊ में अपना प्रोगाम कर रहे थे, तो उनके इस एक्टिंग की प्रतिभा को भारतीय खुफिया एजेंसी राॅ के कुछ अधिकारियों ने देखा। उन्होंने रविन्द्र को पाकिस्तान में भारत का अंडरकवर एजेंट (जासूस) बनने का आॅफर दिया। जिसे रविन्द्र ने स्वीकार कर लिया। इसके बाद दो साल तक दिल्ली में उन्हें प्रशिक्षित किया गया। इस दौरान उन्हें उर्दू भाषा सीखायी गयी व पाकिस्तान से जुड़ी अन्य सभी जानकारियाँ भी दी गयीं।
     सन् 1975 में पूरी तैयारी के साथ रविन्द्र   पाकिस्तान पहुँचे। यहाँ पर इनका नाम नबी अहमद शाकिर था। पाकिस्तान में आकर इन्होंने कानून की पढ़ाई के लिए काॅलेज में दाखिला ले लिया। इसे पूरा करने के बाद उनको पाकिस्तानी आर्मी में एक कमीशंड आॅफिसर के रूप में नौकरी मिल गयी। धीरे-धीरे प्रमोशन करके वो आर्मी में मेजर की रैंक तक पहुँचने में सफल हुए। यहाँ पर इन्होंने एक पाकिस्तानी लड़की अमानत से शादी भी कर ली। बाद में उनका एक बच्चा भी हुआ। सन् 1979 से 1983 के दौरान रविन्द्र कौशिक ने कई महत्वपूर्ण सूचनायें राॅ को भेजीं। जिसकी वजह से भारतीय बलों को बहुत सहायता मिली। इस दौरान उन्हें एक और नया नाम  "ब्लैक टाईगर" मिला। यह नाम उनको भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा दिया गया था।
       सन् 1983 का साल रविन्द्र कौशिक के लिए बुरा साबित हुआ। इस साल भारतीय खुफिया एजेंसियों ने एक   और जासूस इनायत मसीहा को पाकिस्तान में रविन्द्र कौशिक की मदद करने के लिए भेजा। लेकिन वो पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों के द्वारा पकड़े गये। इनायत मसीहा ने पकड़े जाने के बाद रविन्द्र कौशिक के बारे में भी सबकुछ बता दिया। इसके बाद रविन्द्र कौशिक को भी गिरफ्तार कर लिया गया। सन् 1985 में उन्हें मौत की सजा सुनायी गयी। लेकिन बाद में पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे उम्रकैद में बदल दिया गया। इसके बाद उन्हें सियालकोट व कोट लखपत जैसे कई जेलों में रखा गया। अपनी सजा के दौरान रविन्द्र ने चुपके से कई चिट्ठियाँ अपने परिवार वालों को लिखीं। इन चिट्ठियों के माध्यम से वह अपने ऊपर होने वाले जुल्मों के बारे में बताते थे। एक चिट्ठी में तो उन्होंने लिखा है, "क्या भारत जैसे देश के लिए कुर्बानी देने वालों को यही मिलता है?" जाहिर सी बात है कि रविन्द्र के पाकिस्तान में पकड़े जाने के बाद उस समय की तत्कालीन सरकार ने उनको भारत में वापस लाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। उन्होंने करीब 16 साल जेल में बिताये। इन 16 सालों में वो टीबी व अस्थमा जैसी कई बिमारियों के शिकार हो गये और अंत में सन् 2001 में पाकिस्तान के मियांवली जेल में उनकी मौत हो गयी।
      रविन्द्र कौशिक की माँ अमलादेवी ने उनको वापस लाने के लिए ढेरों पत्र भारत सरकार को लिखे थे, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। सरकार ने रविन्द्र की कोई भी मदद नहीं की। अंततः उनको मौत ही नसीब हुयी। रविन्द्र की मौत के बाद सरकार ने बस इतना ही किया कि उनकी माँ को 500 रूपये प्रति महीने पेंशन के तौर पर दिये जाने लगे, जिसे कुछ सालों बाद बढ़ाकर 2000 कर दिया गया। सन् 2006 में रविन्द्र के माँ की भी मौत हो गयी।
      रविन्द्र कौशिक ने देश की खातिर अपनी जिन्दगी के 26 साल कुर्बान कर दिये, जिसमें से वो 16 से अधिक सालों तक तो जेल में रहे। वास्तव में वे उन चंद लोगों में से हैं, जिन्होंने देश की सुरक्षा के लिए अपनी जान तक दाँव पर लगा दी। उनकी मौत के इतने सालों के बाद वो सरकार द्वारा तो भुला दिये गये हैं, लेकिन हमारा यह फर्ज बनता है कि हम उनकी कुर्बानी को याद रखें और उनके प्रति एक सम्मान की भावना को बनाये रखें।


                                                                                               (Photo- The Telegraph)